लघुकथा : बोलैरो कवर पढ़कर जानिए दारोगा जी कैसे रफादफा करते मामले को।
By :- Saurabh Dwivedi
☆बोलैरो कवर☆
किशोरी कार एसेसरीज की दुकान पर बैठा था। बड़ी दूर से चलकर आया था। काफी थका हुआ महसूस हो रहा था। चेहरा झुंझला गया था और तन पर पड़ा सफेद कुर्ता भी मटमैला हो चुका था। कुछ हालचाल लेने के बाद दुकान मालिक से कहता है कि बोलैरो का कवर चाहिए ?
मिस्टर लोकतंत्र उनकी बात सुन रहे थे। किशोरी के बगल में बैठकर कार एसेसरीज के मालिक सोनू की तरफ जिज्ञासा पूर्ण हतप्रभ हो टकटकी लगाए थे।
सोनू कहने लगे कि आपके पास बोलैरो कब आई ? बोलैरो तो थी ही नहीं !
किशोरी इधर-उधर ताड़ने ( नजरों से हेराफेरी ) लगा , तत्पश्चात धीमे स्वर में बोला …..
अरे मेरे लिए नहीं ! वो दरोगा जी के पास एक मुकदमा लंबित है। कल दरोगा जी के पास गया तो उन्होंने कहा कि देखो किशोरी तुम्हारा पूरा मामला हल कर दिया जाएगा। किन्तु जानते हो कि मंहगाई बढ़ी है , अनुपात में कमाई घटी है ! सातवां वेतन आयोग लग जाए या आठवां लगे , जानकारी होनी चाहिए दरोगा लोगों को भी थाना फोकट में नहीं मिलता।
थाने का थानेदार आम आदमी के लिए शेर जैसी धमक रखता है। उसके भय से आदमी का हृदय धक – धक करता है , पर वास्तव में हम भी किसी के कृपा – पात्र हैं। हम तुम्हारे जैसे लोगों से सत्यनारायण – कथा की दक्षिणा की तरह धन लेते हैं , फिर कृपालु जी के पास भेज देते हैं। हमारे कृपालू बड़े भारी लोग होते हैं ! उससे तुम्हारा कोई मतलब नहीं है।
उन्होंने किशोरी से ये भी कहा कि इत्ती सी बात से समझ लो। बहरहाल अभी तो कुछ ठीक-ठाक माहौल है , बस एक काम करो बोलैरो का कवर लेते आना। इसके बाद तुम्हारा मामला रफादफा हो जाएगा।
किशोरी रात भर सोचकर सुबह भागा – दौड़ा धर्म नगरी की कार एसेसरीज की दुकान पर आया , वह भी अधर्म के लिए !
सोनू से सारी व्यथा कही। सोनू ने सही सलाह देते हुए मीडियम क्वालिटी का सोने सा चमकदार ( ब्लैक कलर ) बोलैरो का कवर दिया। कम पैसे में अधिक दाम का दिखने वाला कवर निश्चित रूप से दारोगा जी को खुश किया होगा और किशोरी भी खुशामदीन हो गया।
इस तरह से कानून के रक्षक और किशोरी की सांठ-गांठ से मामला कोर्ट में जाने से पहले हल हो गया। दारोगा जी भी खुश , किशोरी भी खुश और सोनू का धंधा भी हो गया। अंततः न्यायालय भी एक अतिरिक्त मुकदमे के बोझ तले दबने से बच गया। वैसे भी लंबित मुकदमों की फेहरिस्त बड़ी लंबी है।
बैठे हुए ग्राहक भी गदगद हुए कि अरे बोलैरो के कवर से मामला रफादफा हो जाता है। वहीं मिस्टर लोकतंत्र फुसफुसाया कि सरकारें आएंगी – जाएंगी , दारोगा आएगा – जाएगा पर धन रहना चाहिए। पैसा है तो सत्ता जेब मे है , कानून जेब मे है। न्याय त्वरित मिल जाता है और न्याय दबा दिया जाता है।
चौकीदार हर गांव का , हर थाने मे होता है। वह चौकीदार ही रहा पुराने कपड़े और मटमैली साफी डाले आजादी से इक्कीसवीं शताब्दी तक वही फटेहाल हैं। ना बोलैरो है , ना बोलैरो का कवर लगता उसे !
सच्चाई इतनी सी है कि चौकीदार दो जून की रोटी के इंतजाम में हताश – परेशान रहता है , उसकी जिंदगी में रोमांस नहीं होता और फार्चुनर तो उसके परदादा भी नहीं जानते। उसे मिलने वाला वेतन महीने भर की देह , कपड़े की साबुन और टूथपेस्ट आदि के लिए अट जाए तो बड़ा न्याय होगा ? चूंकि चौकीदार को घूस में दो जून की रोटी भी नहीं मिलती।
अंततः मिस्टर लोकतंत्र ने स्वयं पर अट्टहास किया और चल पड़ा कहीं और सच्चाई से रूबरू होने , हकीकत क्या है ?