क्या मैं न्यूजीलैंड हूं ? हां मैं हूं.

By – subham rai

मानवीय मूल्यों की दुहाई दे या नैतिकता वादी आचरण का ढिंढोरा पीटे। नफरत के गर्भ में मानसिक कुंठा की खुराक से एक निश्चित समय में जो जीव उत्पन्न हो रहा है ,उसे आतंकवाद के नाम से जाना जाने लगा। जब मैं कक्षा 6 में था तब मैंने एक ट्रैवल मैगजीन में न्यूजीलैंड के विषय में एक यात्री का यात्रा संस्मरण पढ़ा। उस लेख में जो अवलोकन न्यूजीलैंड और वहां के लोगों के विषय में था । इसमें वहां के भौगोलिक, सामाजिक नैसर्गिक वातावरण के साथ ही लोगों के व्यवहार कुशलता ,मिलनसार प्रवृत्ति का बखूबी चित्रण किया गया । यह खूबी ही उसे अपनी एक अलग पहचान दिलाती है। वर्तमान परिस्थिति से इतर है।

आतंकवाद को वीजा प्रक्रिया की सरकारी बेड़ियो में राष्ट्रीय नियमों में बांध कर रखना अब मुमकिन नहीं रहा । यह एक वैश्विक मानवता विरोधी रोग बन चुका है।
इसका ज्वलंत उदाहरण शांति के शहर न्यूजीलैंड के क्राइस्ट चर्च में दो मस्जिदों में हुई विभत्स घटना से पूरा विश्व पटल पर उजागर हुई।
क्राइस्टचर्च में हुई इस दुर्भाग्यपूर्ण एवं कयारता पूर्ण घटना की वैश्विक स्तर पर निंदा हुई। विश्व के लगभग सभी देशों से तीखी प्रतिक्रिया आई।
सर्वप्रथम प्रतिक्रिया न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री जेसिंडा अर्डर्न कि आई ,जिसमें उन्होंने इसे आतंकी घटना माना । उनके इस कथन को गहराई से न केवल समझना होगा बल्कि इसके समस्त पहलुओं पर विचार विमर्श नितांत आवश्यकता है।
आतंकी की परिभाषा क्या होगी ? आतंकी की पराकाष्ठा क्या है ? क्या कोई वर्ग विशेष है या कोई व्यक्तिगत हितों को साध कर मानवता के नाम पर मानवता को ही रौंदते चला रहा है। भारत तो हमेशा ही आतंकवाद पर विश्व पटल पर एक मत हासिल करने का पक्षधर है। क्योंकि हम स्वयं पीड़ित है इस घाव से।
आतंक शिशु ना रहकर एक युवा हो गया है जो रूप बदलने में माहिर है । अलग-अलग स्थान ,समाज ,लोगों को किस तरह टारगेट करना है । वह यह दानव भली भाति सीख चुका है।
न्यूजीलैंड आज आहत है – निशब्द है – मौन है। उसने तो कभी नस्ल रंगभेद श्वेत अश्वेत देश देशांतर का भेद नहीं किया सभी को मान सम्मान दिया और विश्व में अपनी अनोखी पहचान स्थापित की।
क्रिकेट की वजह से चर्चा में रहने वाला यह देश सुर्खियां आज भी बटोर रहा है । परंतु आज उन सुर्खियों में जो सुर्ख है 49 निर्दोष लोगों की निर्मम हत्याओं से रक्त रंजित है।
गन कल्चर नाम का टैग कर ऐसी घटनाओं को संयुक्त राज्य अमेरिका अलग रूप देता आ रहा है। वहाँ 9/11 के बाद से कोई भी बाहरी आतंकी घटना भले ही ना हुई हो परंतु आंकड़े यदि जांचें जाए तो पिछले 10 वर्ष में ही अलग-अलग घटनाओं ने मृत्यु का आंकड़ा दो सैकड़ा तक कर दिया है। जिसे नकारा या अनदेखा नहीं किया जा सकता।
प्रमुख बिंदु यह है कि हमलावर आतंकी दक्षिणपंथी विचारधारा से जुड़ा है। जिसका ऑस्ट्रेलिया में भी वैश्विक प्रसार एवं प्रभुत्व विगत वर्षों में बढ़ता ही गया है ।जिसके तहत आईएस जैसे आतंकी संगठन को ज्वाइन करने के लिए कई ऑस्ट्रेलियाई नागरिक इराक सीरिया का रुख़ पूर्व मे कर चुके हैं।
धार्मिक स्थलों को निशाना बनाना यह पहली घटना नहीं है । वर्ष 2002 गुजरात का अक्षरधाम , वर्ष 2015 में यमन में मस्जिद पर फिदायीन हमला, 2012 अमेरिका के गुरुद्वारे में गोलीबारी हो या हाल ही वर्ष मे कनाडा में हुए हमला।
नफरत की मानसिकता जब तक हावी है। यह घटना की पुनरावृत्ति को नजरअंदाज नहीं करने देगी। हमें यूरोपीय देश नार्वे में वर्ष 2011 में एंडर्स ब्रिविक नामक हत्यारे को भी नहीं भूलना चाहिए जिसकी इसी घृणित अलगाववादी , आतंकी मानसिकता ने 77 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। परंतु उसे सरकार ने आतंकी घटना ना मानकर महज शूटर करार दिया। आतंकी अपने श्वेत अश्वेत, धर्म, मूल ,दक्षिणपंथी सभी अपने चरमपंथ की सीमा को वैश्विक रूप से कई समय से लांगते आ रहे हैं । जिसका ज्वलंत और भयावह दानवी चेहरा हम देखते आ रहे हैं।
विशेष रुप से यूरोपीय देशों पश्चिमी देशों के साथ आतंक से ग्रसित समस्त राष्ट्रों को एकजुट होकर इसके स्थाई समाधान के लिए एक कदम आगे बढ़ाने से गुरेज नहीं करना चाहिए।
इस घटना से स्तब्ध खड़ा न्यूजीलैंड मानो यह कह रहा हो सभी से ~ मानव को मानव की तरह ही रहना होगा ! दानवता की, नफरत की यहां कोई जगह नहीं है कोई जगह नहीं है।