सफलता के आदर्श अनिकेत की कहानी.

By – Saurabh Dwivedi

पारले जी एक ऐसा नाम है कि भारत की हर पीढ़ी कम से कम इस नाम से बचपन से लेकर बुढ़ापे तक परिचित रहती है , बेशक बिस्कुट ” गुड डे ” भी आया पर पारले जी की तरह प्रसिद्ध नहीं हुआ। यहाँ तक की हिन्दी का अच्छे दिन इक्कीसवीं सदी का सबसे प्रसिद्ध शब्द रहा पर ” गुड डे ” नहीं।

पारले जी की ये कहानी चित्रकूट के अनिकेत की है। बेरोजगारी का मतलब ही अनिकेत हो जाना। अनिकेत बुंदेलखण्ड के चित्रकूट जैसे रोजगार के मामले में पिछड़े जिले से है , जबकि आध्यात्मिक रूप से चित्रकूट श्रीराम की तपस्थली के रूप में समृद्धशाली है।

यहाँ मध्यमवर्गीय एवं गरीब परिवार में जन्म लिए लगभग हर बच्चे को रोजगार हेतु पलायन करने का अभिशाप वरदान स्वरूप कुंडली में लिख जाता है। शायद यहाँ के बच्चे ऐसे गृह – नक्षत्र में जन्म लेते हों कि माता-पिता से दूर दहलीज लांघकर दूर किसी महानगर में मेहनत – मजदूरी करने पहुंचते हैं।

ऐसे ही अनिकेत भी पारले जी कंपनी में नौकरी करने इस उम्मीद से गया था कि उसके अच्छे दिन आ सकेंगे ? तनख्वाह के नाम पर लगभग पांच हजार रुपये और रहने को रूम दिए जाने की बात तय थी।

वहाँ पहुंचने के उपरांत अपनी ही मिट्टी और माँ की याद सताने लगी तो मित्रों से घुल मिलकर खुशियां मनाने के पल जब याद आए तो महसूस किया , अरे अच्छे दिन तो मैं जी ही रहा था ?

सच है कि जब हम जिंदगी की यात्रा में आगे बढ़ते हैं तब जीवन दर्पण महसूस करने पर आभास होता है कि हमने अच्छे दिन पहले ही जिए हैं। जैसे कि बचपन से ज्यादा अच्छे दिन और कब व कैसे हो सकते हैं ?

नौकरी शुरू करने के पहले दिन से अनिकेत को अजीब खयालात आने लगे और वह सोचने लगा कि महीने के पांच हजार में उसके सपने शीघ्र साकार नहीं होगें।

इसलिये अनिकेत ने नौकरी करने के बजाय नस्लीय व्यापारिक गुण को महसूस कर पारले जी की कंपनी के पास छोटा सा होटल खोलने का विचार कर लिया। अब अनिकेत की दृष्टि बदल चुकी थी।

पारले जी कंपनी का हर कर्मचारी , उसे अपना ग्राहक नजर आने लगा था। आसपास बनी कालोनी में रहने वाले भी ग्राहक दिखने लगे और उसने महीने भर की कमाई का मोटा आंकड़ा भी निकाल लिया।

किन्तु भाग्य कहें या सोच कही जाए , अनिकेत के मन में वही बात घरकर गई कि अगर किसी को पता चला कि मैं होटल खोल कर गुजर बसर कर रहा हूँ , तो रिश्तेदार क्या कहेंगे ? मेरी इज्जत का क्या होगा ?

सच है कि हमारे यहाँ रोजगार में अगर सबसे बड़ी कोई बाधा है तो वह झूठी इज्जत के दिखावे का हमेशा से इजाफा होता रहना है। इसलिये वो कदम पीछे खीचने लगा कि चलो नौकरी ही कर ली जाए ! परंतु ना वह नौकरी कर सका और ना व्यापार।

सोच से ही इंसान मात खा जाता है और उसके साथ भी ऐसा ही हुआ। लेकिन एक बार फिर अनिकेत पारले जी कंपनी पहुंचा और कुछ दिनों बाद फिर वापस आ गया।

बेरोजगारी के दिनों में अच्छे दिन महसूस नहीं किए जा सकते थे। अपनी सोच से मात खाया हुआ अनिकेत किसी अवसर के तलाश पर था कि उसके एक कांटेक्ट वाले परिचित का काल आया और उसने जमीन लेने की इच्छा जताई।

यहीं से एक बड़ी डील के साथ अनिकेत के भाग्य के दरवाजे खुल गए। व्यापारिक नियम के अनुसार उसके हिस्से लगभग पचास हजार रुपये मिल गए। अब उसकी सोच का ही कमाल रहा और समय का साथ कि उसने सोच लिया कि , क्या चित्रकूट में कम पैसा है ? जो बाहर जाया जाए ?

सही समय पर सही निर्णय असरदार हुआ और उसने छोटा सा व्यापार शुरू कर शुरुआत की और आज एक बड़ा व्यवसायी है। अनिकेत का अब यही कहना है कि सच कोई भी काम छोटा नहीं होता बल्कि छोटे से शुरूआत कर ही हम बड़ा काम कर पाते हैं , एक एक सीढ़ी चढ़कर ही उन्नति का सफर तय किया जा सकता है।

अनिकेत जिंदगी के बुरे दिन को सीख मानता है और आज के अच्छे दिनों का लुत्फ उठा रहा है।इसलिए आवश्यक नहीं कि गुड डे नाम होने से गुड डे हो जाए बल्कि शख्सियत पारले जी की तरह होनी चाहिए कि हर किसी की जुबां पर हो और जिंदगी का संघर्ष हारना नहीं चाहिए , युवाओं के लिए अनिकेत एक आदर्श व्यक्तित्व है।