बाली उमर : जब मैं पोस्टमैन बनते-बनते रह गया !
By :- Saurabh Dwivedi
बाली उमर एक ऐसी उमर जिस उम्र में जीवन की सबसे दिलचस्प घटनाएं घटित होती हैं। संत – महात्माओं ने भी कहा है बचपन को जी लो ! जीवन में सभी बाली उमर की ओर लौट जाना चाहते हैं परंतु दैहिक रूप से एक ही जन्म में बाल उम्र में वापस लौटना असंभव सी बात है। किन्तु मानसिक रूप से बचपन में लौटा जा सकता है। जिंदगी 50 – 50 के लेखक भगवंत अनमोल की कलम से जन्मी किताब बाली उमर बचपन की उम्र की यात्रा करा रही है।
ऐसा मुझे उस वक्त महसूस हुआ। जब मेरी मुलाकात किताब के किरदार पोस्टमैन से हुई। हालांकि उपन्यास का किरदार पोस्टमैन बड़ा जबर आदमी है। चतुराई से भरा हुआ नटखट सा बालक और तमाम जिज्ञासाओं से परिपूर्ण है ! उसमें और मुझे एक्सीडेंटल फर्क है कि वह पोस्टमैन बन चुका था और मैं बनते-बनते रह गया।
बचपन की यात्रा से मुझे याद आया। जब मैं पड़ोस के घर की सीढ़ियों पर बैठा था। उससे पहले बताना आवश्यक है कि हम तब किराए के मकान में रहा करते थे। पड़ोस के घर में दो लड़कियां भी रहती थीं , इधर मेरे घर में भी दो बड़े भाई थे।
एक मेरे बड़े पापा के बेटे थे। अपनी उम्र के हिसाब से तब खूब सुंदर नौजवान थे। पढ़ने-लिखने में भी होशियार नवयुवक थे। साथ ही उनकी शालीनता की चर्चा भी खूब हुआ करती थी। बदमाशों का मुहल्ला हो और कोई एक बच्चा शालीन हो तो उसकी शालीनता पूर्णिमा के चांद की तरह चहुंओर फैल जाया करती है।
तो हाँ मुझे बताना यह था कि मैं पोस्टमैन बनते-बनते कैसे रह गया ? वह भूमिका लिखना भी बहुत आवश्यक था कि लोग जान सकें कि एक लड़की कब , क्यों और कैसे किसी से प्यार कर सकती है ? वो किस प्रकार के लड़कों को अत्यधिक पसंद करती है। वो प्रेम में जब पड़ती है तो उसके सपनों का राजकुमार कैसा होता है ? इसलिए मैंने बता दिया कि मेरे युवा होने की दहलीज पर कदम रख चुके भैया कैसे थे !
मैं सीढ़ियों पर बैठा था। वो लड़की मेरे पास आई और समीप आकर बैठ गई। मुझे तनिक सा दुलार करते हुए बोली थी कि अपने भइया से एक बात कह दोगे ?
बचपन मे ही मेरी छठी इंद्री काम करने लगी थी। मैं सोचने लगा कि कौन सी बात और क्या बात होगी ? तब तक मैं भी प्रेम – व्रेम वाली बातों से इत्तेफाकन जानकार हो चुका था। बेशक मसाले में राई बराबर ही सही !
जैसे कि वर्तमान समय में ” फोरजी ” जमाने के बच्चे वक्त से पहले एंड्रायड मोबाइल और टेलीविजन आदि के माध्यम द्वारा तेज रफ्तार से दुनिया को जान रहे हैं। वैसे ही मैं भी कम उम्र में कुछ जानकार हो गया था।
इसलिए जब उन्होंने एक बात कहने को कहा और फिर वो नहीं कह सकीं। फिर इतना कह सकीं कि रहने दो ! तब तक मैं कुछ – कुछ समझ चुका था कि मामला कुछ – कुछ है। आप मुझे बचपन का शैतान बच्चा भी कह सकते हैं। किन्तु बचपन की यात्रा की यह हकीकत है।
यह हकीकत मेरे बचपन में एक ही बार घटित हुई थी। उस वक्त मैं बाली उमर के किरदार पोस्टमैन की तरह पोस्टमैन बनते-बनते रह गया था। जैसे ही मैंने किताब के पृष्ठ पलटे और दो – चार पृष्ठ पढ़ कि मैं मानसिक रूप से बचपन की यात्रा में पहुंच चुका था। मैंने अपनी बाली उमर से किस्सा सुना दिया और उम्मीद है कि इस उपन्यास को पढ़कर सभी बाली उमर की यात्रा करेंगे और बाली उमर की ताजातरीन घटनाओं से रूबरू करा सभी बचपन की यात्रा करेंगे।