ब्राह्मण हक व सम्मान के लिए गरजे तो खूब लेकिन सवाल बड़े खड़े हुए हैं

ब्राह्मण समाज के सनातनी सम्मान को दलालों की लपलपाती जीभ मे गिरवी रख दिया है। राजतंत्र मे विद्वान ब्राह्मण राजा के सलाहकार व मंत्री होते थे और उनकी राय से राज पाठ चलता था लेकिन लोकतंत्र मे सन 1990 के बाद ब्राह्मणों की राजनीति का क्षरण शुरू हुआ जिसकी रक्षा ब्राह्मण समाज नही कर पाया तो एक बार फिर बसपा के उभार मे ब्राह्मणों का योगदान रहा और उस चुनावी समय मे दिनेश मिश्रा कम अंतर से विधायक बने तो भैरों प्रसाद मिश्र सांसद का चुनाव हार गए इससे अच्छा संदेश नही गया अगर यहां पर चुनाव जीतते तो संदेश अच्छा जाता। लोक निर्माण विभाग के मंत्री रहते हुए चंद्रिका प्रसाद उपाध्याय चुनाव बड़े अंतर से हार गए तो किसी और के सर चुनावी हार का ताज पहनाकर पल्ला झाड़ने की नीति से बेहतर होता कि हार की सही समीक्षा करते लेकिन ब्राह्मण जनता के बीच दोष किसी पर मढ़ दो परंतु राजनीति के विशेषज्ञ के बीच गलत संदेश गया , ऐसे तमाम कारणों के साथ विचार करें कि चूक कहां और कैसे हो रही है तो शायद ब्राह्मण समाज की लोकतंत्रात्मक मंशा साकार हो सके अच्छे मन से विचार विमर्श अवश्य करें

चित्रकूट : दलों के टिकट बंटवारे के साथ जातीय समीकरण की गोट सेट की जाने लगी है। चुनाव के समय जातिवाद म्यान मे तलवार की तरह निकलकर सामने आता है जैसे तलवार की धार से विरोधी की गर्दन काटकर धड़ से अलग कर दी जाएगी। ऐसी ही धारदार बातें जातीय सम्मेलन मे की जाती हैं यह कोई ब्राह्मण सम्मेलन की बात नही है इस मामले मे हर जाति की बात निराली है।

यहां बात ब्राह्मण सम्मेलन की हो रही है। जिसकी चर्चा होने से पहले खूब थी तो संपन्न होने के बाद भी खूब हो रही है। कहते हैं वहां धारदार बातें हुई हैं कि अबकी मुरव्वत नही बरती जाएगी लेकिन ये भूल है क्योंकि ब्राह्मणों ने समय आने पर कभी मुरव्वत बरती ही नही है।

व्यक्तिगत दुख – दर्द पूरे समाज का हो जाए यह हर आदमी की चाहत होती है। पावरफुल लोगों के साथ आदमी की भीड बहुत होती है लेकिन ब्राह्मण क्या कमजोर हो गया है जो भीड़ वहां दिखी नही ? क्योंकि गरीब हो कमजोर हो तो उसके रिश्तेदारों की भीड़ उसके साथ नही हुआ करती है यह मानव जाति का मुख्य मसला है अपनी ही जाति मे लोग अकेले होते हैं सिर्फ चुनाव के समय इनको एकता की हुंकार भरनी होती है।

वैसे भीड़ जुटाने की कोशिश मे सतना से दो बस नारी शक्ति भरकर लाई गई थीं। वो नारी शक्ति ही सम्मेलन मे मुख्य आकर्षण का केन्द्र रही हैं। उन्हीं के भरोसे कुछ जान रही वरना वक्ताओं को बोलने मे शर्म आ जाती तो उतना जोश भी नजर नही आता जो थोड़ा-बहुत पुतिन के बम गोले जैसे शब्द सुनाई दे रहे थे बल्कि ब्राह्मणों को जरूरत इस बात की है कि सर्व समाज के हित की बात करे जिसमे ब्राह्मण हित छिपा हुआ है और जब ब्राह्मण समाज का कोई नेता विधायक , मंत्री और सांसद बनता है तो कम से कम अपनी ही जाति के लोगों का उचित ख्याल रखते तो एक समर्थक वर्ग ऐसा तैयार होता जो लोकतंत्र की हर मांग को पूरी कर चुनावी जीत का हल निकालता। ताकि उनका जलवा बरकरार रहे नही तो यह क्या ऊंट के मुंह मे जीरा वाली कहावत चरितार्थ होती है जो रत्ती भर भीड़ नजर आयी ऊपर से सवाल ब्राह्मण नेतृत्व का है तो याद रखना होगा कि सपा मे यादव जिलाध्यक्ष ही पर्याप्त होता है बाकी चुनाव कोई भी लड़े तो एक नजर भाजपा मे ब्राह्मण भविष्य पर दौड़ा लेते हैं।

क्योंकि यहां अगर देखो ब्राह्मण समाज से सबसे ज्यादा ब्लाक प्रमुख हैं। भाजपा का जिलाध्यक्ष भी ब्राह्मण है और मानिकपुर विधानसभा का विधायक भी ब्राह्मण है और नगर पंचायत राजापुर व मऊ के अध्यक्ष भी ब्राह्मण हैं तो क्या सांसद भी ब्राह्मण ही हो ? जबकि कर्वी सदर की सीट पीडब्ल्यूडी के राज्य मंत्री चंद्रिका प्रसाद उपाध्याय गंवा कर ब्राह्मणों की साख को मैली कर चुके हैं या ब्राह्मणों ने खुद अपनी साख मैली कर ली।

अब इस सम्मेलन पर ही खबर चली कि दलालों के भेट चढ़ गया ब्राह्मण सम्मेलन लेकिन आयोजकों की मंशा ठीक थी। नरैनी का पुंगरी गांव नितिन उपाध्याय का पैतृक गांव है जो मुंबई सहित विभिन्न महानगरों मे बिजनेस करते हैं और अब पर्याप्त कमा चुके हैं तो अंधेरे मे उजियारा फैलाने आए हैं लेकिन कहते हैं ना कि चंद वरदाई ने कहा था कि ” अब मत चूको चौहान ? ” तो यहीं पर नितिन उपाध्याय से चूक हो गई।

आनन-फानन मे ब्राह्मण सम्मेलन जैसे कार्यक्रम का आयोजन कराना उचित था क्या ? क्योंकि ब्राह्मण नाम ही पहले तो हाथी जैसा है और हाथी पगला गया तो रौंद डालता है और ब्राह्मण सम्मेलन दलालों के भेट चढ़ गया तो ये ब्राह्मणों के माथे पर पत्थर मारकर पागल कर देना है और जो भी दलाल हैं जिन्होंने ब्राह्मण समाज के माथे पर कलंक जड़ा है उनको सजा कौन देगा ? इस नाम के साथ खिलवाड क्यों ?

शंख बजाकर आह्वान करते और ब्राह्मणों को शंख सप्रेम भेट किया जाता तो ब्राह्मण दौड़ा चला आता है। कहते हैं कि बुलाने वाला निवेदन करने वाला मनसा वाचा कर्मणा अर्थात मन से और कर्म से निवेदन तो करे तब तो परिणाम सामने आएगा ? अफसोस है कि यहां पर ब्राह्मण सिर्फ चूक नही गया बल्कि उसका मजाक बन गया।

किन्तु यह ठीक है कि सबकुछ आयोजकों के सर मढ़ दिया गया। ब्राह्मण संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजेन्द्र नाथ त्रिपाठी खूब दहाड़े तो वहीं चार मासूमों की मौत का मामला भी उठा और कुछ एक विवादित मुद्दे भी चर्चा का विषय रहे लेकिन जातीय सम्मेलन जातीय उत्थान के लिए जितने आवश्यक हैं उतना ही आवश्यक है कि समाज का पतन ना हो और समाज मे विद्रोह ना पैदा हो।

ब्राह्मण कभी इतना कमजोर नही था कि उसे जातीय सम्मेलन करना पड़ जाए लेकिन वोट की ठेकेदारी और निजी महत्वाकांक्षा ने ब्राह्मण को कमजोर कर दिया है। ब्राह्मण का शंख बजता है तो वातावरण शुद्ध हो जाता है कीटाणु मर जाते हैं और जाति का ठेकेदार बनकर संख्याबल के आधार पर ब्राह्मण समाज के सनातनी सम्मान को दलालों की लपलपाती जीभ मे गिरवी रख दिया है। गौरतलब है कि ब्राह्मण समाज का सनातन धर्म के अंतर्गत कितना गौरवपूर्ण सम्मान का इतिहास रहा है। 

लोकतंत्र मे संख्याबल मे ब्राह्मण मजबूत स्थिति मे है तो वही संख्या भीड़ मे नही नजर आई तो यह सिद्ध होता है कि सम्मेलन की जिम्मेदारी लेने वालों ने आह्वान ढंग से नही किया। शंख बजते और शंख भेट करते तो युवा खिंचा चला आता फिलहाल वातावरण शुद्ध करने के लिए अर्चना नितिन उपाध्याय ने पौधे गमले सहित भेट जरूर किए हैं और अंत मे भोजन प्रसाद से ब्राह्मण समाज जाने क्या संदेश लेकर गया है यह तो वक्त बताएगा ?

इस सम्मेलन मे पूर्व सांसद भैरों प्रसाद मिश्र मंचासीन रहे जिनके टिकट की चर्चा हुई और वकालत भी ऐसी हुई कि उनके चुनाव लड़ने के कयास लगाए जाने लगें जो नामांकन तक कन्फर्म होगा कि वह निर्दलीय या किस दल से चुनाव लड़ेंगे या फिर पूर्व मे 2019 की भांति भूमिका का निर्वहन करेंगे। ऐसे ही अन्य टिकटार्थी नेताओं के दो चार समर्थक नजर आए तो कुलमिलाकर माहौल चुनावी ही कहा जाएगा।

लेखक / पत्रकार सौरभ द्विवेदी की कलम से