भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन चुका , मत लड़ो इससे।
By – Saurabh Dwivedi
सच है , भ्रष्टाचार लोक व्यवहार का शिष्टाचार बन चुका है। ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार को खत्म करने की सोच रखना जिंदगी को खत्म कर लेना है। चहुंओर दलाल व दलाली का जादू रह गया है।
कोई काम अटक रहा है तो पैसा पटक दो , अफसर बाबू के हाथ जोड़कर साहब बोल दो , निरीह बन जाइए फिर देखिए सुपीरियटी काम्पलेक्स के साथ साहब दलाल के माध्यम से रक्त रंग की कलम चलाकर काम कैसे कर देते हैं।
संभव है , कोई जनप्रतिनिधि निधि में कमीशन ना लेता हो पर जनप्रतिनिधि के छुटभैये करीबी पीछे से वसूली का खेल खेलते हैं। एक जनप्रतिनिधि बड़ा ईमानदार है पर उसके चिंटू – मिंटू कृषि विभाग से लेकर कोतवाली तक विभाग – विभाग वसूली करते हैं। ऐसे ही निधि में कमीशन का खेल भी चलता रहता है।
कहीं कोई काम बिन दलाल के बामुश्किल ही चमत्कारिक ढंग से हो तो हो अन्यथा वर्तमान युग भ्रष्टाचार युग है। कलयुग तो धर्म के अनुसार होगा पर राजनीति और अफसरशाही ने इसे “भ्रष्टयुग” तय कर दिया है। अगर इस युग में ईमानदारी से काम करना चाहते हैं और दूसरों से संवेदनशीलता व ईमानदारी की अपेक्षा करते हैं तो साहबान मंगल ग्रह में जीवन के आसार हैं , जाइए जरा कोशिश कर लीजिए।
खुश होकर जीना है तो दलाल को देवता समझिए , पूजिए ! अफसर बाबू को परम शक्ति मानिए और उनके मान – सम्मान के मुकुट को चमकाते रहिए। आप सिर्फ और सिर्फ शरणार्थी की तरह का व्यवहार करिए , दया की भीख मांगिए फिर देखिए कि इस भ्रष्टयुग में कृपा बरस जाएगी।