डिप्रेशन जैसी बीमारी के प्रति जागरूकता आवश्यक है.

बहुत देर से सोच रहा था कहूं या न कहूं। किसी पर असर पडे़गा या नहीं ! किसी को रूचि होगी अथवा नहीं। क्यूंकि समय ऐसा चल रहा है कि उन्मादी बात कह दो तो लोगों के अंदर का अंगारा भी धधकने लगता है। जाने कितने अंगारे पूर्ण लालिमा में सामने सौरमंडल के तारामंडल की भांति पोस्ट पर दिखने लगते हैं।
लेकिन जब बात समाज की होती है और सहजता सरलता से समता की बात होती है, जिंदगी की बात होती है तो चुपचाप पढ़ने और समझने वालों की तादाद के साथ सामने आने वालों की संख्या कम होती है। 
बड़ी सामान्य सी बात है। सामान्यज्ञान की बात है कि भारत में अगर सबसे अधिक किसी काम की जरूरत है तो वह जनजागरूकता है। एक सामाजिक पुल बनाने की जरूरत है। 
हम सबके रिश्ते ऐसे हों कि एक दूसरे के साहस बन सकें। माता पिता अवसाद जैसी बीमारी को पहचानने लगें और जब बच्चे अवसाद में हो तो बुखार, कैंसर की बीमारी की तरह समझ जाएं कि इसे इलाज की जरूरत है।
हमारे देश में एड्स की पहचान हो गई है। लोगों की नजर पैनी हो गई है। सरकार “सावधानी ही बचाव” लिखवाकर प्रचार प्रसार कर रही है। किंतु डिप्रेशन जैसी बीमारी की पहचान समाज मे किसी को नही है। जिससे अनेक प्रतिभायें नष्ट हो जाती हैं। 
स्त्री हो या पुरुष निराशा में जीवन डूब जाता है। महिलाओं को भी डिप्रेशन की बीमारी परिवार में रहते हुए हो जाती है। हमारी पारिवारिक सामाजिक व्यवस्था ही ऐसी है। 
जब कोई साथ न हो। कोई समझने वाला न हो तब वास्तव में जीवन आध्यात्म की ओर मुड़ जाए तो यकीनन आत्मशांति महसूस होती है। जिंदगी में उड़ान भरने के लिए एक पक्षी प्रेरणास्रोत हो सकता है। जब वो जमी पर होता है, पिंजरे में होता है तब पंख सिमटे हुए होते हैं। 
लेकिन जब उसे उड़ान भरनी होती है तब पंख खोलकर फड़फड़ाता है। आप भी एक वक्त अंदर ही अंदर फडफडा सकते हैं किंतु पक्षी की तरह सीमाओं को लांघकर स्वायत्त जीवन की उड़ान भर सकते हैं। 
असल में हमारा जन्म ही स्वयं को जानने के लिए हुआ है। इस जीवन को ऐसे जी लेने के लिए हुआ है कि जीवात्मा जगत में उन्नति कर सकें।
किंतु हम यहाँ दुनियादारी में फंस जाते हैं। दुनियादारी अवश्य करें किंतु स्वायत्त जीवन को मन और आत्मा से महसूस कर के स्वसुख हेतु जिंदगी होनी चाहिए।
इस समाज को डिप्रेशन जैसी बीमारी को पहचानने का सामान्यज्ञान बड़े बुजुर्गों को देना चाहिए। जिससे घर की महिलाएं, बच्चे और कोई परिजन इस बीमारी का शिकार न हो सकें। 
अंत में यही कहूंगा कि कोई आपके साथ न हो तो स्वयं को जानने, समझने और जीने से बेहतर कुछ होता ही नही है।

BY – Saurabh Dwivedi