शिक्षित या साक्षर अथवा ?

By :- Saurabh Dwivedi

शिक्षा एक बार फिर चर्चा के केन्द्र पर आ चुकी है। शिक्षा ऐसा विषय है जिसका चर्चा में बना रहना आवश्यक है। अगर शिक्षा चर्चा में नहीं होगी तो शिक्षा मर जाएगी और सोचिए यदि शिक्षा मर गई ? तो क्या आदमी जीवित रहेगा ?

चिंता की बात है कि शिक्षा और आदमी का जीवित होने से क्या संबंध है ? संबंध है , तभी शिक्षा की जरूरत होती है। अन्यथा जन्म के साथ संपूर्ण शिक्षित आदमी का जन्म होता , किन्तु प्रजनन से आदमी शिक्षित नहीं होता है। जन्म होते ही बच्चे को शिक्षित नहीं कहा जाता तो उसे अशिक्षित भी नहीं कहा जाता ! साक्षर और निरक्षर भी नहीं होता वह !

जन्म के साथ दीक्षा अवश्य शुरू हो जाती है। दीक्षा बड़ी अलग चीज है। यह सांकेतिक भाषा से शुरू हो जाती है। बच्चा स्वयं दीक्षित होने की प्रक्रिया से गुजरता है , बेशक माता – पिता और तमाम परिजन इतने दीक्षित और जागरूक हैं भी या नहीं कि ठीक अभी जन्मा बच्चा स्वयं दीक्षित हो रहा है ? यह चेतना की बात है। यदि आदमी की चेतना जागृत होगी तो वह समझ सकेगा कि बच्चा जो देख रहा है , वो सीख रहा है। हाँ बच्चे ऐसे ही होते हैं।

बच्चा जो क्रिया – प्रतिक्रिया देखता है। वही सीखता है। कुछ बुरा घटित हो रहा है तो वह बुरा सीखता है। अच्छा घटित होगा , अच्छा सीखेगा। सीखना और पढ़ने – लिखने में बड़ा अंतर है। पढ़ना – लिखना बहुत बाद की प्रक्रिया है। बल्कि जन्म के साथ ही चेतना का विस्तार होना शुरू हो जाता है। जन्मा हुआ बच्चा जैसा संसार देखेगा वैसा ही हो जाएगा। चूंकि निर्माण हमेशा अंदर से होता है। अतः जीवन निर्माण के लिए शिक्षा – दीक्षा पर चर्चा होनी आवश्यक है।

केन्द्र सरकार का इतना शुक्रगुजार होना चाहिए कि नई शिक्षानीति पेश करके आम जनमानस में शिक्षा के प्रति जानने की इच्छा को जगा दिया है। बेशक वह शिक्षा नीति देश के कितनी काम आएगी ? यह गर्भ का विषय है। वर्तमान समय में सरकार है बस , सरकार पर भरोसा कितना है ? इससे बड़ी बात है कि सरकार कोई नीति या योजना बनाती है तो जनता के बीच क्रियान्वयन होने में कितना समय लगता है ? ठीक-ठाक लागू हो पाती है या नहीं ! सवाल इस तरह के उपजते हैं।

इक्कीसवीं सदी में इंसान को अब सोचना चाहिए कि शिक्षा अच्छी होती , उत्तम होती तो समाज का इतना भयावह चेहरा बन पाता क्या ? राष्ट्र का नक्शा अपने आप में स्थिर है परंतु आदमी अस्थिर है। जितनी भी व्याधियां व्याप्त हैं , यह सब होतीं क्या ? नीति और नक्शे का दोष नहीं होता , दोष इंसान को होता है। नेतृत्व को होता है। नेतृत्व सिर्फ नेतागिरी वाला नहीं , शिक्षक से लेकर समाज के हर तपके का जिम्मेदार व्यक्ति नेतृत्वकर्ता होता है। शिक्षक उन नेताओं से बड़े नेतृत्वकर्ता हैं जो सत्तासुखस भोगते हैं। यदि शिक्षक अच्छे नेतृत्वकर्ता होते तो राष्ट्र का नेतृत्व उत्तम लोगों के हाथों में होता फिर शिक्षा और शिक्षा नीति पर चर्चा करने की जरूरत नहीं थी। चूंकि शिक्षा स्वयं अच्छी होती।

अभी बहुत कुछ गडबड है। जो संभालने से संभाला जा सकता है। सर्वप्रथम परिवार और परिजन व समाज को दीक्षा पर ध्यान देने की जरूरत है। परिजन और समाज इतना संवेदनशील हो कि बच्चा देखकर कुछ सीख रहा है , बच्चे के सामने गुस्सा ना करें और हिंसक ना हों। साथ ही ध्यान रखें बच्चे के सामने झूठ बिल्कुल ना बोलें और ना बुलवाएं ! ऐसे बहुत से कुकृत्य हैं जो बच्चों के सामने किए जाते हैं और उसका घातक परिणाम बच्चों के मन को प्राप्त होता है। ये बहुत गहरी बाते हैं , लोग तैरना सीखते हैं। गोताखोर बनने की बहुत कम की इच्छा होती है। तैरने के शौकीन लोग मिल जाएंगे परंतु गोताखोर बड़ी मुश्किल से मिलते हैं फिर भी समाज को सुख और समृद्धि के लिए सोच – समझ और विचार से गोताखोर होना होगा।

तब जाकर दीक्षित बच्चे स्कूल में दाखिले के साथ अच्छी शिक्षा की ओर मुखर हो सकते हैं। अभी फिलहाल ढेरों डिग्रियों के साथ सभी साक्षर हो रहे हैं , साक्षर होकर नौकरी कर रहे हैं। कुछ छोटा – मोटा व्यापार केन्द्र खोल लेते हैं। बहुत से साक्षर लोग अपराधी भी हो जाते हैं। दलाल साक्षर होता है ! भ्रष्टाचार करने वाले नेता साक्षर होते हैं। घूसखोर अफसर हाईक्लास साक्षर होता है। साक्षरता का यही अर्थ है।

साक्षरता के नाम पर पुरस्कार भी बंट चुके हैं। बुंदेलखण्ड के जनपद चित्रकूट में एक बड़े होशियार जिलाधिकारी आए और उन्होंने लगभग छांछठ प्रतिशत साक्षरता दर दिखाकर सरकार पुरस्कार प्राप्त कर लिया। कुछ समय बाद वही बुजुर्ग अंगूठा लगाते मिलने लगे। यह बड़ा काम पूर्व जिलाधिकारी जगन्नाथ सिंह ने किया था और इनके संगी समाजसेवी साथियों ने , सोचने योग्य है कि साक्षर बनाने के नाम पर भी बड़ा भ्रष्टाचार हो गया। जबकि जिलाधिकारी होना बड़ी बात है। आईएएस क्वालिफाई करना पड़ता है अर्थात यहाँ पर भी शिक्षा – दीक्षा और साक्षरता का अंतर साफ झलकता है।

संस्कार और जिम्मेदारी का भाव बड़ी बात है। यदि संस्कार हों और जिम्मेदारी का अहसास हो जाए तो फिर मुश्किल कहाँ हैं ? जो शिक्षा इस भाव का जन्म नहीं दे पाती है , वह असल मायने में असफल है। सिर्फ बच्चों पर बोझ लादा जा रहा है। बोझ इतना बड़ा है और स्कूल का माहौल इतना खतरनाक है कि अक्सर घरों में रोते हुए बच्चे मिल जाते हैं कि स्कूल नहीं जाएंगे ? और माता-पिता सोच नहीं पाते कि बच्चा स्कूल जाने से क्यों घबरा रहा है ? वे स्कूल में पहुंचकर मुआयना नहीं करते कि क्या बच्चा शिक्षकों से डर रहा है ? या बात कुछ और है ! स्कूल प्रबंधन से सवाल होना चाहिए कि हमारा बच्चा स्कूल आने के नाम पर रोता क्यों हैं ? किन्तु अभिभावक यह जहमत नहीं उठाते बल्कि बच्चे को ही पीटते मिल जाते हैं और जबरदस्ती स्कूल भेजते हैं , यह बहुत बड़ी ज्यादती है !

भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी ने बड़ी बात कही थी कि शिक्षा का मतलब सिर्फ नौकरी करना नहीं है। लेकिन समाज का बड़ा हिस्सा समझ ही नहीं सका। शिक्षा यदि अवसाद का कारण बनने लगे तो विचार होना चाहिए कि शिक्षा में कहाँ खामी है। शिक्षा नीति पर समाज से सुझाव मांगा जाना चाहिए पर सरकार कोई समिति बनाती है और घोषणा कर देती है।

भारत की सरकार और समाज के पास वक्त अभी भी है कि कम से कम शिक्षक मनोवैज्ञानिक तो हों और रटंत पद्धति से इतर शिक्षा मौलिक हो। एक अच्छे सामाजिक निर्माण के लिए साक्षरता नहीं बल्कि शिक्षा – दीक्षा पर विशेष जोर देना होगा। शिक्षकों को भी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। परिवार से लेकर स्कूल तक का माहौल अच्छा हो और हाँ दीवारें भी अच्छा संदेश देती हों नाकि बच्चे पढ़ें कि गुप्त रोग के इलाज के लिए मुझ नीम – हकीम से मिलें।

समझने योग्य है कि संक्रामकता खत्म नहीं कर पाए और नई शिक्षा नीति बना रहे हैं। सरकारी शिक्षा नीति अपना काम करेगी , वह कितनी अर्थवान है कि नहीं ! चर्चा इस बात की नहीं है , बल्कि क से ज्ञ तक बहुत बड़ा परिवर्तन करने की आवश्यकता है। वरना अवसाद ही पर्याप्त है कि मानव जीवन का सुख छिन जाएगा। बड़ी भयावह स्थिति हो जाएगी। अतः शिक्षा को जीवन निर्माण – निर्वाह की अंतर्दृष्टि से मंथन करना होगा ताकि शिक्षित के उद्देश्य से भ्रमित साक्षरों की भीड़ ना इकट्ठा होती जाए , बहरहाल अभी बदस्तूर यही जारी है !

परिवार , समाज और सरकार की जिम्मेदारी है कि जीवन निर्माण की दिशा में सोचा जाए। समय के अनुसार मांग का समर्थन होना चाहिए। शिक्षा पर संवाद होना चाहिए , अवसाद रहित शिक्षा नीति हो। शिक्षक मनोवैज्ञानिक आधार पर बच्चों को रूचिकर शिक्षा प्रदान करें , प्रत्येक बच्चे / व्यक्ति में विशेष प्रतिभा होती है। उस प्रतिभा को पहचानकर उस दिशा में चलायमान कर देना भी शिक्षा है। जो अपने क्षेत्र का विशेषज्ञ होगा वही शिक्षित होगा और दीक्षा अंतर्निहित होती है , मनुष्य यही है।