नहीं जाऊंगा महानगर , यहीं करूंगा काम .
@Saurabh Dwivedi
गांव पर चर्चा
गांव के युवाओं के भाग्य में पलायन की रेखा जन्म के समय ही खिंच जाती है। वो बच्चा जन्म लेने के समय रोता है और फिर युवा होने के साथ कमाने की चुनौती के लिए गांव की दहलीज डाककर निकल पड़ता है परदेश के लिए ! एक ऐसे ही युवा की दास्तान है , जो अब महानगर से अपनी दहलीज – अपने गांव और घर की ओर पलायन कर चुके हैं।
गांव पर चर्चा के दौरान नोनार गांव के युवा मोहन से मुलाकात हुई , जिन्हें ‘ मोहन ठाकुर ‘ भी कहते हैं। इन्होंने नाबालिग उम्र मे ही पलायन किया था। इनका रिश्ता पिता की वजह से मध्यप्रदेश की कटनी से भी रहा , परंतु वह पलायन गांव से ही था।
कोरोना संक्रमण के कारण से ये महाराष्ट्र के पुणे से वापस की ओर चल दिए। इनकी यात्रा का विवरण कटु सत्य है कि इन्होंने जो दर्द पलायन के समय नहीं भोगा उससे बड़ा दर्द महानगर से वापसी मे भोगना पड़ा। चूंकि एक ट्रक में लगभग साठ से सत्तर लोग बैठकर आए। जबकि गांव से पलायन के समय ट्रेन द्वारा महाराष्ट्र प्रवेश किए थे।
हाँ यह बात अच्छी रही कि बीच मे रास्ते मे मध्यप्रदेश क्षेत्र में ट्रक रूकवा – रूकवा कर लंच पैकेट दिया जा रहा था। इन्होंने बताया कि महाराष्ट्र की यात्रा रात – रात मे हुई थी। किन्तु मध्यप्रदेश की यात्रा दिन मे हुई और समाजसेवियों द्वारा मिले लंच पैकेट से हम सभी की भूख तृप्त हो सकी।
इस समाजसेवा पर मेरा इनसे प्रश्न था कि क्या आप कभी भविष्य मे ऐसी समाजसेवा करना चाहेंगे ?
इन्होंने जवाब दिया कि हाँ ! मैं पहले से अपनी बिरादरी का एक संगठन चला रहा हूँ , वह नाई बिरादरी का संगठन है। जिसके द्वारा गरीब – जरूरतमंद की मदद की जाती है। किन्तु कोरोना संक्रमण के समय मे जिस समाजसेवा के भाव से हमारी भूख तृप्त हुई , उसकी भूख अपने मन मे तनिक हमेशा जीवित रखूंगा , जिससे भविष्य मे मैं भी समाज मे जागरूकता के लिए मददगार हो सकूं।
यह अच्छे संकेत हैं कि संक्रमण की वजह से युवाओं की सोच मे परिवर्तन आ रहा है। वह अपने देश , समाज और जिंदगी के लिए सामूहिक रूप से बहुत कुछ अच्छा करना चाहते हैं। मोहन ठाकुर के मन मे कमाने के साथ निभाने की सोच प्रबल हुई है , एक सामाजिक जिम्मेदारी निभाने की सोच !
यह पुणे में बीते दस – पंद्रह वर्ष से पेंटिंग का काम कर रहे थे। इससे पूर्व नाबालिग उम्र मे पलायन के समय-समय दिहाड़ी मजदूरी से लेकर साइट सुपरवाइजर तक का काम किया है। लेकिन बाद में एक पेंट शाॅप मे काम करते हुए पेंटिंग लाइन में उतर आए।
इन्होंने युवाओं को रोजगार भी दिया। गांव नोनार से पलायन किए हुए कुछ युवाओं को अपने ठेके पर इमारतों में पेंट करने का काम दिया। दर्जनों युवा इनके साथ पेंटिंग का काम करते रहे। पुणे की लगभग पच्चीस बड़ी इमारतों को चमकाने का काम कर आय अर्जित की !
परंतु अब इनका भी मोह महानगर से भंग हो गया। यह पेंटिंग का सभी जरूरत का सामान लेकर वापस अपने गांव नोनार जनपद चित्रकूट चले आए , अब इनको इंतजार है कि यहीं से कोई काम मिले और पुणे की तरह इमारतों को चमकाने का काम शुरू करें।
ऐसे कर्मठ युवाओं का साथ स्थानीय निवासियों का अब देना चाहिए। इन्होंने चौदह दिन क्वारंटीन रहकर नियमों का पालन किया है। और अब काम करने को तैयार हैं। इन्हें यहीं काम मिलेगा तो रोजगार के साधन यहीं उत्पन्न होंगे। नेता और सरकार पलायन का दर्द महसूस करे ना करे परंतु समाज को इस दर्द को महसूस करना चाहिए। चूंकि कच्ची उम्र में संकट के समय युवा जब निकलता है तब वह रक्त के आंसू रोता है।
वैसे तो ग्राम नोनार के लगभग प्रत्येक दूसरे – तीसरे घर का चूल्हा पलायन की कमाई से ही जलता है , अब संभवतः उज्जवला योजना की गैस जल रही होगी परंतु यह सच है कि इस गांव के युवा इतने कर्मठ हैं कि कोई भी छोटा – मोटा लघु उद्योग लगा दिया जाए तो गांव के युवा ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बैकबोन बन जाएंगे। इस गांव मे परिश्रमी युवा हैं जिनको आय का साधन मिलते ही खुद के भाग्य के साथ अर्थव्यवस्था के भाग्य की कहानी भी तैयार कर देंगे।
परिवार को , समाज को और राजनीति तथा सरकार को युवाओं की बेकार हो रही ऊर्जा के सदुपयोग के लिए युद्ध स्तर पर काम करना चाहिए। इसी गांव की भलाई है और गांव के विकास से राष्ट्र के समृद्धि की नींव मजबूत होती है। आशा है कि मोहन ठाकुर जैसे युवाओं को अपने गांव और अपने जनपद में इतना काम मिलेगा कि यहीं जन्मभूमि के आंचल में कर्मठता से सुखपूर्वक जीवन जिएंगे।
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