परमधाम से प्रकट हुए पृथ्वी लोक के चित्रकूट मे परमात्मा श्रीकृष्ण ; राम क्यों बने कृष्ण और कृष्ण क्यों बने राम एक संत और भक्त के कैसे अधीन हो जाते हैं भगवान
चित्रकूट : श्रीमद्भागवत गीता महाभारत का सार तत्व है जो जीवन को अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलती है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश पहले सूर्य को फिर अर्जुन को कुरूक्षेत्र के मैदान मे देकर मानव के कल्याण का उपाय सुझाया और हर वर्ष वृंदावन हो मथुरा हो या फिर चित्रकूट धाम जहाँ भी भगवान कृष्ण के मंदिर हैं वहां उनका प्रकटोत्सव मनाया जाता है जिसे बोली मे जन्मोत्सव भी लोग कहते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण के 5250 वें जन्मोत्सव पर बांके बिहारी मंदिर चित्रकूट धाम मे पुजारी भारतेन्द्र जी बताते हैं कि भविष्य पुराण मे इस बात का वर्णन है कि चित्रकूट धाम मे सूरदास जी को भगवान कृष्ण ने दर्शन दिए थे।
उन्होंने कहा कि संत तुलसीदास जब वृंदावन पहुंचे तो भगवान से प्रार्थना की कि हे कृष्ण हे प्रभु मैं तो हूँ राम का भक्त लेकिन राम और कृष्ण मे अंतर नही है तो भगवान आप ही मुझे राम के स्वरूप मे दर्शन दे दीजिए तो एक संत और भक्त की प्रार्थना सुनकर भगवान श्रीकृष्ण राम के स्वरूप मे तुलसीदास जी को दर्शन दिए।
ऐसे ही अपने त्याग तपस्या और समर्पण की साधना से भगवान को प्रसन्न करने वाले संत सूरदास की प्रार्थना सुनकर श्रीराम स्वयं श्रीकृष्ण के रूप मे प्रकट हुए तो संत सूरदास को भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन चित्रकूट मे हुए।
इस प्रकार समझ सकते हैं कि भगवान अपने भक्त के अधीन हो जाते हैं और श्रीकृष्ण गीता मे कहते हैं कि मैं तो अपने भक्त के अधीन हूँ। जैसा भक्त चाहेगा मैं करूंगा। लेकिन विद्वान कहते हैं कि भक्त सिर्फ कृष्ण के प्रति समर्पित हो जाए फिर देखिए जीवन मे आनंद और चमत्कार वास्तव मे हम कुछ भी कर लें मगर भगवान के लिए ना करें तो समस्त ऐश्वर्य एक दिन वैसे भी नष्ट हो जाता है। इसलिए आध्यात्मिक लोक के लिए मनुष्य को भक्ति मार्ग मे जीवन को जीना चाहिए।
चित्रकूट धाम मे बांके बिहारी का 250 वर्ष प्राचीन मंदिर है। यहां भगवान जोड़े के रूप मे राधा रानी के साथ विराजमान हैं। मथुरा-वृंदावन जैसा माहौल चित्रकूट मे होने से लगता है कि यहां कृष्ण के साथ राम और राम के साथ कृष्ण विराजमान होकर इस धरा धाम को पृथ्वी लोक का आध्यात्मिक लोक बनने का अवसर दिया है।
सचमुच जीवन अगर सुखमय जीना है और वास्तव मे संतुष्ट होना चाहते हैं , आंतरिक शांति की चाहिए तो फिर परमात्मा की भक्ति और आध्यात्मिक जीवन ही श्रेष्ठ है।