भाषाई विविधता और सांस्कृतिक घुसपैठ.

By – Geetali saikia

ज्यादातर भारतीय मेटा इमोशनल प्रवृत्ति के होते हैं .इसलिए भारत में भावुकता को खूब भुनाया जाता है.मैं देखती हूँ इसका शिकार सिर्फ पढ़े लिखे और समझदार लोग ही नही बनते बल्कि अशिक्षित और अविकसित दूरस्थ क्षेत्रों में इसका दुष्परिणाम व्यापक रूप से होता है.

भारत के पहाड़ी क्षेत्रो में ज्यदातर लिंगविस्टिक माइनॉरिटीज निवास करती हैं. खासकर नार्थईस्ट के परिप्रेक्ष्य में अगर हम देखे तो हर पाच दस किमी पर भाषा ही बदल जाती है. भाषाई विविधता का आलम ही ऐसा है.यहाँ कुल 220 भाषाये बोली जाती हैं जिन्हें कुछ भाषाविद “बोलिया” भी कहते हैं.

हलाकि ये अपने आप में एक विशिष्टता तो है. लेकिन इसके नकारात्मक पहलू काफी सोचनीय हैं. भाषाई विविधता के कारण कई बार इसके अन्दर निवास करने वाली समष्टियों के अन्दर अपनी अपनी भाषा को लेकर सुपीरियरिटी का एहसास होने लगता है जो अंततः अंतर सामुदायिक सम्पर्क क्षीण होने का कारण बनने लगता है. धीरे धीरे प्रत्येक समुदाय अपने अपने संस्कृत , भाषा और सभ्यता को लेकर इतना गर्वित महसूस करने लगता है की वो इस बात को तवज्जो देना जरुरी नही समझता की एक समान भौगोलिक क्षेत्र में निवास करने के लिए अंतर सामुदायिक सम्पर्क का होना कितना आवश्यक है.

परिणाम स्वरूप इस “इंटरकम्युनल ट्रांजीशनल जोन” में एक “अवकाश ” स्थापित होने लगता है..ज्सिकी वजह से अन्य बाहरी सांकृतिक और धार्मिक घुसपैठ पनपने का एक अवसर मिलता है. और इस अवसर को भुनाने के लिए ये बाहरी शक्तियां इनके अति भावुक प्रवृत्ति को निशाना बनातीं हैं. वाह्य शक्तियां शिक्षा , गरीबी ,मेडिकल ,सरकारी नजरंदाजी , इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसे मुद्दों पर इन समुदायों को बारी बारी से इमोशनल हाईजैकिंग का शिकार बनाती हैं.

जिसके परिणाम से जिन क्षेत्रों में काली, शिव आदि के प्राकृतिक या मानवनिर्मित मंदिर हुआ करते थे वहीँ कुछ दिन बाद ही डॉन बोस्को,सेंट जेवियर ,सेंट लुइ ,मदर डी वाइन आदि नामो पर स्कूल ,अस्पताल और चर्च NGO आदि बनने लगते हैं. मौलिक अधिकारों की आड़ में इन्हें खाद पानी दिया जाता है और हमारे पास मूक दर्शक बनने के अलावा कोई आप्शन नहीं बचता.

अतः अपनी भाषा ,संस्कृति आदि पर गर्व करना तो अच्छी बात है परन्तु अभिमान करना गलत है. अभिमान करने से आप के आसपास बाकी लोगो से सम्पर्क टूट जाता है.इसलिए एक उभयनिष्ठ भाषा ऐसी जरूर होनी चाहिए जिससे आपसी सम्पर्क बना रहे ताकि अपनी अपनी मूल सास्कृतिक पहचान को सुरक्षित रखा जा सके.

फिलहाल ये पहाड़ी क्षेत्रो की व्यापक समस्या बन चुकी है लेकिन इससे मैदानी और अन्य क्षेत्र में निवास कर रहे लोगो को भी सीख लेनी चाहिए.क्योंकि कभी कभी दूसरों की गलतियों से सीखना बेहतर होता है , सीखने के लिए स्वयं गलती करना जरूरी नहीं है .