लप्रेक : जमीं पर पंछी (जिया & हनी)

Saurabh Dwivedi

जमीं पर पंछी

जमीन पर एक पंछी जब रहता है। पंख सिकोड़कर जगह पर दुबका सा बैठा रहता है। अपने घोसले में भी ऐसे ही रहता है।

रेगिस्तान में भी प्यासा पंछी थक हार कर तड़पता हुआ बैठा रहता है। हम इंसान भी बिन पर वाले पंछी हैं, हमारे अंदर अदृश्य रूप से मन पर के स्वरूप में है। मन से उड़ान भरते और जमीं पर इंतजार की घड़ी, अपनत्व की प्यास और एहसास में बैठे रहते।

हनी ऐसा ही महसूस कर रहा है, अपनी प्रेयसी जिया से कण्ठीय अनुभूति वाले मिलन के लिए। उसे महसूस हो रहा , एक पंछी की तरह तड़प में इंतजार की घड़ी में पर सिकोड़कर बैठा हुआ है।

जिया यदाकदा काल कर लेती है। जिया पर निर्भर भी है कि वो कब किस युग में नंबर डायल करेगी और स्क्रीन पर उसका नाम देखकर रिंगटोन की तरह हनी की धड़कने बोल उठेंगी।

इन पलों में धड़कनों के साथ आंखो की कोरों में आंसू भी बोलते हैं तो अधरों पर मुस्कान भी पुष्प की एक एक कली की तरह खिल उठती है।

कुछ पल काल पर बात होने के बाद फिर सिलसिला चल पड़ता है, मनस् प्रेयसी से मन ही मन बातें करने का। उसके इंतजार की शुरुआत। इंतजार में ही आत्मीय एहसास जिए गए।

हनी जो उसकी आसमानी मौजूदगी में कोयल सी कूक भरी आवाज से शब्दों ही शब्दों में कविता लिखता। वो पपीहे की तरह स्वाति नक्षत्र की बूंद से प्यास बुझने की रचना रचता।

वही अब जमीं पर बैठे पंछी की कल्पना मात्र से आत्मीय एहसास में लप्रेक लिखने लगा। सीने के दर्द वात्सल्य भाव से पिरोने लगा।

इसलिये कि वह पंख सिकोड़कर बैठा है पंछी की तरह फिर उड़ान भरने के लिए…….