सुखमय जीवन व्यतीत करने का लोक व्यवहार मंत्र।

By – Saurabh Dwivedi

एक सुखी जीवन के लिए हम ताउम्र भटकते हैं। जब हमें कोई सुखी दिखता है , ऐसा लगता है कि मानों एक ऐसा परिवार है जिसमें पारिवारिक सोच – समझ अच्छी है और सभी परस्पर प्रेम से अच्छा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। पिता जी की नौकरी अच्छी चल रही है , वेतन के सिवाय ऊपरी कमाई भी पर्याप्त हो जाती है। बच्चे अच्छी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।

एक ऐसा ही परिवार मैं बचपन से देखता रहा , आज उस परिवार के सामने बड़ा संकट खड़ा हो गया। उम्र भर की पिता जी की वेतन और ऊपरी कमाई भी काम नहीं आ पा रही , ऊपर से कर्ज होने के हालात जन्म लेने लगे हैं।

जब इंसान का अच्छा वक्त रहता है और समृद्धि कूट कूट कर भरी रहती है। वे लोग स्वयं के अलावा किसी और की तरफ इंसानियत की नजर से भी नहीं देखते , एक व्यवहारिक रिश्ता बनाए रखना भी उचित नहीं समझते। वे स्वयं से स्वयं को परिपूर्ण मान लेते हैं। फलस्वरूप वो संसार से सिमटते हुए स्वयं अलगाव तय कर लेते हैं। ऐसे लोगों को दुनियादारी से मतलब नहीं रहता।

किन्तु जब ऐसे लोग घोर संकट का सामना करते हैं और जीवन भर की कमाई खपने लगती है। सबकुछ तहस नहस सा हो जाता है , तब इन्हें आसपास रहने वाले और दूर – दराज के साथियों से प्रेम भरा सहयोग चाहिए होता है। कोई ऐसा हो जो इनके कंधे पर हाथ रख दे , ताकत बन सके। इन्हें महसूस हो सके कि संकट की घड़ी में कोई इनके साथ है। लेकिन कितना घातक है कि जीवन भर ये किसी के साथ पल भर को खड़े नहीं होते , अच्छे से बातचीत नहीं करते और सहयोग के नाम पर तिनका मात्र का कुछ कर नहीं पाते।

संकट की घड़ी में खड़े मित्र से इतना ही कह सका कि देखो मैंने तो बचपन से जिंदगी के हर हालात को महसूस किया है। अमीरी – गरीबी और दुख – दर्द को नजदीक से जाना है , पर सच है कि तुम इस अप्रत्याशित समस्या के लिए कभी तैयार नहीं थे। लेकिन जिंदगी यही है , कभी भी कुछ भी हो सकता है और हमारा सबकुछ तहस – नहस हो सकता है।

उस मित्र ने कहा कि यार मैं दो महीने में ” डाऊन टू अर्थ ” हो गया। कितना अच्छा होता कि वही मित्र बेशक अपना दुख – दर्द ना जानकर दूसरों के दुख – दर्द को देखता और जिंदगी के सच को महसूस करता। लोगों के साथ संकट की घड़ी में तन्मयता से खड़ा रहता तो आज उसके दुख पर ही बहुत से मित्र सहज भाव से खड़े रहते। उसे अकेलेपन का दर्द नहीं झेलना पड़ता।

जिंदगी भर में एनकेन प्रकारेण संचित किया धन सिर्फ एक घटना और बीमारी से नष्ट हो जाता है , इसलिये मनुष्य को संकट की घड़ी के लिए ही सही दूसरों के संकट में काम आना चाहिए और अपनेपन के भाव से लोक व्यवहार होना चाहिए। कोशिश करनी चाहिए कि किसी बड़े पद पर रहते हुए आम गरीब आदमी से घूसखोरी नहीं करनी चाहिए। बल्कि अपने पद और इंसानियत के कर्तव्य का ईमानदारी से पालन करना चाहिए ताकि संकट के समय कुछ नहीं तो लोग आपके लिए सहज भाव से प्रार्थना कर सकें।