कभी आते थे विद्यासागर पाण्डेय भी टिकट की दौड़ में शामिल होने.
By – Saurabh Dwivedi
बांदो लोकसभा में धनपशु हमेशा से लैंडिंग करते रहे हैं। ऐसे ही एक भारी भरकम धनपशु विद्यासागर पाण्डेय भी थे। उनकी ठाठ – बाॅट के कहने ही क्या और सादगी सर से लेकर पैर तक साफ नजर आती थी। हुलिया कुछ इस तरह था कि सर पर बाल नहीं थे और पहनावा धोती – कुर्ता था। अगर देह स्लिम फिट होती तो गांधी देह कहा जा सकता था। किन्तु ड्राई फ्रूट्स का भोजना करने वाले श्री पाण्डेय तंदुरुस्त और गोरे – चिट्टे आदमी थे। जेहन से चेहरे तक टिकट की लालसा इस तरह झलक रही थी कि पूरा बांदा – चित्रकूट होर्डिंग्स से एवं वाल पेंटिंग से पाट दिया जाता था। परंतु भाजपा शीर्ष नेतृत्व ने स्थानीयता के असर को बखूबी समझा था इसलिए टिकट तो नहीं दिया पर बांदा चित्रकूट से वापसी का टिकट जरूर दे दिया था।
ऐसे ही हालात वर्तमान समय मे भी हैं। जब धनपशु बांदा लोकसभा में अपना असर छोड़ रहे हैं। किन्तु समझने योग्य बात है कि जिन्हें धन की सदुपयोगिता का अहसास नहीं है वे जनता का नेतृत्व क्या करेंगे ?
अगर मोटा – मोटा आकलन लगाया जाए तो कई लाख रूपये की एचडी क्वालिटी की होर्डिंग्स एवं विभिन्न कार्यक्रम मे लाखों रूपए उड़ाए जा चुके हैं। यदि इनमें नेतृत्व की समझ व संवेदनशीलता होती तो यही धन कृषि वैज्ञानिक को बुलाने में , किसानों के खेत की मिट्टी का मुफ्त में मृदा परीक्षण कराने में खर्च किया जा सकता था। जिससे किसानों को लाभ होता और हृदय में वास होता। युवाओं के हित में सफलता से संबंधित जागरूकता के मोटीवेशनल प्रोग्राम किए जा सकते थे। अफसोस है कि धनपशुओं में इतनी समझ नहीं और सलाहकार भी नासमझ हैं।
हाल फिलहाल यहाँ चर्चा इसी बात की है कि शीर्ष नेतृत्व मूल बुंदेलखण्डी बनाम राजनीतिक बुंदेलखण्डी के मुद्दे को समझ रहा है। चर्चा – परिचर्चा के केन्द्र में स्थानीयता को बल मिला है और आशाएं यही हैं कि गैर जनपदीय नेताओं का हाल ए बयां विद्यासागर पाण्डेय सरीखा होगा। इससे पहले भी गैर जनपदीय नेताओं ने स्थानीय जयचंदों की बदौलत सह प्राप्त की थी परंतु जन जागरूकता की वजह से असफलता हाथ लगी थी।