कविता गुजरे जमाने की बातें होती जा रही हैं.

By – Saurabh Dwivedi

पता नहीं कविता गुजरे जमाने की बातें होती जा रही हैं। ऐसा भी नहीं कि रचने के लिए जज्बात की कमी है पर हाँ कुछ तो कमी महसूस हो रही है। हमेशा महसूस किया और मन ही मन कहा भी कविता से मेरा कोई वास्ता प्रयोजन नहीं , ये तो तुम्हारे अहसास की वजह से मेरे अंदर ” धक धक ” की धधक से जन्मती हैं। याद है आह्ह से जन्मी कविता।

एक ऐसी गहरी साँस और अहसास के संगम में सरस्वती की तरह अदृश्य रूप से तुम्हारी मौजूदगी ! जैसे साँसे गंगा हैं और अहसास यमुना हैं। पवित्र दोनों हैं पर गंगा की अपेक्षा इलाहाबाद में यमुना ज्यादा फल क्षेत्र में फैली हुई महसूस होती , उसके जल का रंग श्यामपट की तरह गहरा काला महसूस होना और दूर से देखकर ही गहराई से डर जाना कि गलती से भी बीच मंझधार में पहुंचे और तैरना ना आता हो तो अंतिम यात्रा ही मान कर चलो !

हाँ प्रेम कुछ ऐसा ही तो है। उसकी गहराई में डूबो और साथ ना मिले तो यकीनन डूब कर मर जाने के समान होता है , पर मैंने आत्मीय अहसास बिना किसी स्वार्थ के अंदर ही अंदर कल्पनाओं में महसूस किया है और कल्पना से बिछड़ना भी कैसा ? आखिर स्व कल्पना हमेशा पास ही रहती है।

फर्क पड़ता है ! जब कल्पनाओं में हर पल की मौजूदगी का अहसास रहा हो और वही क्षण भर का तनिक सा साथ ना मिले। ना मौजूदगी का अहसास हो और महसूस हो कि हथेली छोड़कर तुम अलविदा कहते हुए अनंत यात्रा में जा रही हो। हाँ तुम्हे अलविदा कहने की आदत सी है और मेरी भी वही आदत कि सजल आंखो से तुम्हे मनाते रहना।

खैर मैं रचना चाहता हूँ और बारिश के मौसम की हथेली पर गिरती बूंदों को स्पर्श के एहसास वाली तुम्हारी कल्पनीय तस्वीर महसूस हो रही है। लगभग पंद्रह दिन से धूप नहीं निकली और जब भी कविता जैसे कुछ रचना चाहा , बस वही सफेद और गुलाबी रंग में बादलों को निहारती हुई , हथेली फैलाए हुए ; तुम्हारी वही तस्वीर मेरे नयनों के सामने मानस पटल पर समा जाती।

चाहूँ तो अभी रच लूं पर थोड़ी हिम्मत आजकल छोटी पड़ रही है। हाँ बात ये भी है कि तुम्हारी ना मौजूदगी का अहसास हो रहा है कि कविता बन जाएगी पर वह हर्ष नहीं कि तुम्हारे पढ़ते ही अधरों पर मुस्कान बिखर जाएगी। मुझे हर्ष इस बात का है कि जिंदगी में वह वक्त आया कि तुम सी प्रेयसी को आत्मीयता से रचता रहा और देखो आज एक अद्भुत सी कृति ” अंतस की आवाज ” दुनिया के समक्ष है। अब शायद वो वक्त आ रहा है कि कविता ना सही और यदाकदा ही सही पर जब भी मन और सीने का साहस साथ दे ऐसे ही साँस दर साँस शब्द पिरो कर तुम्हे पत्र लिख दिया करूं , वह भी अंतस की आवाज से।

चलो फिर अब मैं पलकें बंद कर महसूस कर रहा हूँ। अपना ही माथा हथेली से फेरकर गहरी साँस ले रहा हूँ। आज की शाम और ये रात जाने क्यों अच्छी है। कुछ सुगंध महसूस हो रही है और तबियत भी मस्त महसूस हो रही है। अंतस की आवाज को तुम महसूस करना , आखिर कविताओं की तरह ये पत्र भी वहीं से आकार ले रहा है।

जीवन की यात्रा में समय का महत्व होता है। वैसे ही मेरी जिंदगी में तुम्हारा महत्व है और तुम भी समय हो। इसलिये संगिनी कहा है। समय की संगिनी हो। समय पर रच जाती हो , स्वयं मुझे नहीं पता समय कब आएगा और आ जाता है। है ना अद्भुत !