कविता: रचता हूँ मन ही मन पर कागज पर उतारता नहीं हूँ.
By :- Saurabh Dwivedi
ऐसा नहीं है
कि जी नहीं करता
रचने को
रचता हूँ
मन ही मन
पर कागज पर
उतारता नहीं हूँ।
दिल की दिल में
रख लेता हूँ
आखिर संजोया वहीं है
वो तो कभी
आ जाती हो
शब्द बनकर
कागज में उतर जाती हो
एक रचना का
स्वरूप बनकर
नयनों से उतर जाती हो
आभा तुम्हारी
छा जाती है
सीने पर मेरे ……
एक गहरी छांव सी
महसूस होती हो
आखिर भारी तपन में
ठंडक का अहसास दे जाती हो।
हाँ कुछ ऐसी ही
आभा है तुम्हारी
मेरे हृदय में
खूबसूरती की सुगंध में तुम्हारी
खोया हुआ
तुम्हारा आत्मीय प्रेम।
तुम्हारा ” सखा “