कविता : प्रेम अगर गठबंधन होता.

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प्रेम अगर गठबंधन होता
कश्मीर का गठबंधन होता
हालात जैसे हैं
कश्मीर के

सच वैसे ही
हालात प्रेम के
प्रेमी – प्रमिकाओं पर
सदियों से चल रहे हैं
पत्थर ….

ये पत्थरबाज
झूंठे खोखले
सामाजिक मान – मर्यादाओं के
ठेकेदार हैं

जिन्होंने क्रूरता में
आनर किलिंग भी
खूब की ..

मार दिए जाते
थर थर कांपते प्रेमी

बसने नहीं दिया जाता कि
बना सकें अपना एक घोसला
इंच भर भी जमीं मुहैया नहीं होती
दिलों में सूई की नोक के बराबर भी
सहजता नहीं होती

अपनी ही सजाई हुई
बेड़ियों से
ये बांधते रहे हैं
अपनी शर्तों और मर्यादाओं से
जिनमें जीवन घुटता रहा है

जैसे घुट रहे थे
दो दल
अपार असमानता होने के बावजूद भी
सत्ता की खातिर था
गठबंधन

ये दल थे
समय देखकर
हो लिए किनारे
भले हों बहसें
गरमागरम …

पर इस समाज में
मन से महसूस करने
जीवन जीने के फैसले पर
ना हो सका
कभी संवाद
यहाँ जिंदगी घुटा करती है

इज्जत
मान – मर्यादाओं की
डेटिंग पेंटिंग
लस्टर वस्टर वाली
दीवारों के अंदर

एसी में भी
बह जाता है पसीना
आंसू बनकर
मनस् महबूबा का
और महबूब भी
दूर कहीं सुबकता है

काश कश्मीर के हालातों सा
महसूस कर लेते
जिंदगी के हालातों को भी
भले तोड़ना पड़ता
गठबंधन
तोड़ लेते गठबंधन

ताकि फिर कभी
प्रेम कलंकित ना हो
बेवफाई के किस्से
डायनासोर की तरह
लुप्तप्राय हो जाएं

प्रेम में वफा ही वफा हो
प्रेम में वफा ही वफा होती है
आत्मीय प्रेम का
एहसासों वाला
साँसो का गठबंधन
धड़कनों की धुन में
अजर अमर है

तुम्हारा ” सखा “