कविताओं का सफर थमा सा फिर भी उम्मीद है.

By – Saurabh Dwivedi

अब वो दिन गए जब कविता लिखी जाती थी। सीने से शब्द शब्द अंकुरित हो रच जाती एक रचना और कहलाती थी कविता ! प्रेम – अहसास की यही ताकत है कि अक्खड़ , अनाड़ी भी कवि हो जाता है। एक ऐसा कवि जो अपनी रची रचना को किसी मंच पर कहने के लिए तैयार नहीं है।

जब से कविता की किताब आई। कुछ बड़ों ने आग्रह किया कि कविता कह दो ? बड़ी सहजता से मना करना पड़ा कि नहीं , ऐसा नहीं हो सकता। अपनी कमी भी कहनी पड़ी कि सचमुच मुझ में राग , लय नहीं है। मुझे गीत संगीत और कविता से कभी लगाव नहीं था। स्वयं आश्चर्य भरे दर्द मे हूँ कि कविता जन्मने का रहस्य क्या है ?

कविताओं का उद्देश्य पूरा हुआ या नहीं ? भविष्य में कविताएं रच पाऊंगा या नहीं ! यह भी नहीं पता। कुलमिलाकर आजकल वक्त ऐसा है कि कविता रच नहीं पा रहा। हाँ एक दर्द सीने में गहरे समंदर सा हिलोरे मारता है और कुछ आंसू टपकने से पहले आंखो में रेगिस्तान बन जाता है।

आंसू निकल भी जाएं तो लाभ क्या ? कभी कभी रोना भी नहीं चाहते हम। नहीं चाहते कि रोया जाए। बेशक जेहन के अंदर रोना भी रोना होता है और होठों पर मुस्कान संसार को दिखती रहे , सचमुच यही सांसारिक जीवन है। खैर आजकल वह वक्त आया है जब कविताओं का सफर थमा सा महसूस हो रहा है , फिर भी एक उम्मीद है कि कविता रची जाएगी। ठीक वैसे ही जैसे चलती सांसो से जीवन की उम्मीद होती है कि जीवन अभी शेष है , मृत्यु नहीं हुई है। जब तक मृत्यु नहीं होती तब तक उम्मीद कायम है। जीवन रहते उम्मीद में रहना चाहिए , मुझे भी उम्मीद है।