अंदुरूनी अहसास से पनपने वाले रिश्ते ही अपने होते हैं.

By :- Saurabh Dwivedi

जीवन में अजनबी भी हमारी जिंदगी में प्रवेश करते हैं। हम अजनबी उन्हें कहते हैं जो एक वक्त से पहले कभी मिले नहीं होते। अजनबी वे होते हैं जो रक्त के रिश्ते में रिश्तेदार नहीं होते , पारिवारिक नहीं होते। एकाएक जीवन के पड़ाव मे मिल जाया करते हैं। एक अजनबी के मिलने से जीवन में बदलाव आता है।

कुछ अनुभव प्राप्त होते हैं ! ये अनुभव अच्छे और कम अच्छे हो सकते हैं। कम अच्छे अनुभव रक्त के रिश्ते के भी होते हैं। कम अच्छे अनुभव , उन अपने रिश्तों के भी होते हैं जो सामाजिक प्रमाणिकता मान्यता के साथ हमारे जीवन में आते हैं और अनेको दखल देते हैं।

यह उतना ही सच है जितना एक छत के नीचे परिवार में जिंदगी के दुख – दर्द और सुखमय पल सच होते हैं। एक परिवार के अंदर भी अनेको संघर्ष व्याप्त होते हैं। खुली आंखो और रक्त की धमनियों से सहज अपने लगने वाले रिश्ते भी जिंदगी को दर्दनाक बनाते हैं। एक बेवजह का संघर्ष समाज और परिवार से जीवन मे आ खड़ा होता है।

प्रश्न उठता है कि अपना कौन है ? तो एक अजनबी अपना होता है। वह अजनबी अपना होता है जो जीवन में आकर सुख प्रदान कर जाता है। वह मानसिक आचार – विचार को गहराई से समझता है।

जैसे कि कोई एक मित्र जिंदगी मे हो और दुख – दर्द को बांट ले। अब ये मित्र पहले अजनबी ही थे। किन्तु अपनत्व से मित्र का भाव उत्पन्न हो गया। मित्र वही है , जिसमें मीत हो अर्थात भावनात्मक मिठास हो और खुशबू इत्र सी हो , एक भीनी सी अपनी सी महक !

अजनबी से जान – पहचान तक की यात्रा में जीवन ऊर्जा का रहस्य छिपा होता है। बशर्ते तथ्य विश्वास और अपनत्व का है। समाज से ऐसे भी रिश्ते मिलते हैं जो पारिवारिक व रिश्तेदारी से अलग – थलग होते हैं। जैसे वो किसी और गृह से जिंदगी में फरिश्ते की तरह आ जाते हैं।

सचमुच एक अजनबी से रिश्ता ” फरिश्ता ” साबित हो सकता है। यही प्रेम की धारणा है , प्रेम की अवधारणा है। जिंदगी में प्रेम एकमात्र ऐसी ऊर्जा है जो इंसान को मनचाही सफलता की ओर ले चलती है। साफ शब्दों मे कहना है कि मनचाही सफलता दिला देता है। जिंदगी को सुख का गहरा अनुभव करा देता है। यह सबकुछ एक अजनबी से संभव हो सकता है , परिणाम मिल सकता है। वह अजनबी सिर्फ इस बात का होता है कि पारिवारिक , रक्त की धमनियों वाले जान – पहचान का नहीं है।

पर क्या अपनेपन की परिभाषा चारदीवारी तक सीमित है। ऐसा बिल्कुल नहीं है। चारदीवारी की दहलीज से उस पार भी अपने होते हैं। एक समान मानसिक स्तर के अपने मिलते हैं। वहीं घर – परिवार के अंदर वैचारिक संघर्ष से खूब मुलाकात होती है।

यही जिंदगी का द्वंद्व है। अजनबी कौन ? अपना कौन ? जिंदगी से ऐसे सवाल बहुतेरों के होगें ! फर्क सिर्फ इतना सा है कि लोग कह नहीं पाते और सहकर भी नहीं कह सकते। अंदर ही अंदर ही घुटन महसूस करेंगे और अंतिम यात्रा तक भी पहुंच जाते हैं , तमाम दर्द समेटे हुए ! हाँ कुछ खुशकिस्मत लोग भी होते हैं कि चारदीवारी के अंदर ही उनका संसार बसता है। किन्तु इस चारदीवारी के बाहर भी अपनत्व का संसार होता है।

जिंदगी में कुछ ऐसे रिश्ते मिलते हैं जो होते अजनबी हैं परंतु बातें अपनत्व की करते हैं और जीवन दे जाते हैं। ये अपने वास्तव मे अपने होते हैं। चूंकि ये मन और आत्मा से मिले होते हैं। उनका रिश्ता वाह्य नहीं आंतरिक होता है। अंदुरूनी अहसास से पनपने वाले रिश्ते ही अपने होते हैं।

तुम्हारा ” सखा “