स्त्री संसार की सृजनी है पर सुलझना जरूरी है.
औरत जननी है। पुरूष उसी के गर्भ से जन्मा हुआ मनुष्य मात्र है परंतु स्त्री सृष्टि की रचयिता है। स्त्री नहीं होगी तो सृष्टि का विनाश तय है। जन्म ही नहीं होगा तो शेष क्या रहेगा ?
इस संसार में पुरूष कुछ गलत कर रहा है तो क्यों कर रहा है ? जिम्मेदारी किसकी होगी ? स्त्री की जिम्मेदारी है। वे सोचे कुछ इस तरह से कि सामान्य तौर पर आप सज्जन पति चाहती हो , दुर्जन और दुष्कर्मी बिल्कुल नहीं चलेगा।
यहाँ तक की धूम्रपान करने वाला पति भी नहीं चलेगा। उन्हें तो बस सज्जन , सुशील और जिम्मेदार पति चाहिए फिर भी ऐसे पुरूष नहीं मिलते , कुछ ना कुछ ऐब जरूर रह जाता है।
ऐब तक तो ठीक है पर दुष्कर्म करने वाले पुरूष , मासूम बच्चियों की आबरू लूटने वाले पुरूष और वह भी कम उम्र के लड़के अपराध कर रहे हों , अपराधी बन रहे हों तो चिंतनीय है।
ये चिंता स्त्रियों के लिए है , स्त्रित्व के लिए है। सृजनकर्ता हो आप ! एक मूर्तिकार सुंदर से सुंदर मूर्ति बनाना चाहता है और वह बनाता भी है। उस वक्त भी सृजनरत रहता है। ऐसे ही स्त्री है , संसार की मूर्तिकार।
पर ठहरना होगा , वो स्त्री ही कहीं उलझा दी गई है। उलझ चुकी है। वो स्वयं परेशान है , अपने सशक्तिकरण के लिए। महिला सशक्तिकरण चाहिए। बड़े अपराध हुए हैं उन पर और इस सशक्तिकरण के चलते आवाज बुलंद हो रही है , पर इस ओर नहीं सोच रही या सोचने नहीं दिया जा रहा कि तुम ही सृजनी हो ?
ये संसार विकृत है ; पुरूष विकृत है तो दोष सबसे पहले किसका है ? कहाँ कमीं रह गई ? , मूर्तिकार के तरह की कमीं कि कोई एक जगह या अनेक जगह छेनी – हथौड़ा कम चलाई और लीजिए हो गई मूर्ति विकृत स्वरूप की !
ये संसार सुंदर कैसे होगा ? सज्जन पुरूष कैसे होगें ? जब संसार की सृजनकर्ता को ही फुरसत नहीं है। उसे ही लगता है कि वह बहुत सताई गई है। उसका हक छीना गया है। वह वास्तव में दलित की तरह जी रही है और अचरज की बात है कि जन्म देने वाली जन्मे हुए से प्रताड़ित है।
आज वो अपनी ही पीढ़ियों से , बच्चों से जो बड़ा होकर किसी का पति बन जाता है या और तमाम सांसारिक रिश्ते होते हैं , उनसे ही उसे अपने जीवन का हक चाहिए। आजादी चाहिए।
जो मूल है , उस ओर सोचने नहीं दिया जा रहा है। महिला चाह ले तो वह बदल देगी संसार को , जन्मदात्री है। अपने ही जन्मे हुए को संस्कार देने हैं। उसे ही स्वतंत्रता और स्वछंदता का अंतर बताना है।
सोचिए कि स्त्री कहाँ उलझ कर रह गई है और क्यों उलझ गई कि आज महिला सशक्तिकरण तो चल रहा है , अब रफ्तार का पता नहीं और फ्यूल कितना है ? यह भी पता नहीं पर अगर कुछ पता है तो वृक्ष दिखा रहे हैं , पत्तियां सड़ती हुई दिखा रहे हैं , लगे हुए फल भी दिखा रहे हैं पर वृक्ष की जड़ कैसे देखें ? जड़े पाताल में हैं।
वैसे ही स्त्री का मूल है और संसार का मूल स्त्री है। वह महसूस कर ले और चाह ले तो सबकुछ बदल जाएगा पर जादू की छड़ी की तरह नहीं बदलेगा। प्रक्रिया जन्म से शुरू होगी और मौत से बदलाव आता रहेगा , पर स्त्री का सुलझना जरूरी है।