औरत ही औरत को बंदिशों के जेल में ठूंस देती है.
By – Sarika tiwari anand
यूँ ही मन में एक सवाल उठा। क्या कारण है कि स्त्री के मुद्दों पर जो बहस होती है, उसमें पुरूषों के भाग लेने की प्रतिशतता ज्यादा होती है? महिलाएँ या तो भाग नहीं लेती या तो बहुत कम भाग लेती हैं?
इसका एक जवाब औरतों के व्यवहार पर लगायी गयीं बंदिशें और उसका सोशलाईजेशन है। समाज बङी चालाकी से शर्म को नारी का आभूषण बताकर औरत के व्यवहार पर बंदिश लगा देता है ।घूमने-टहलने और यहाँ तक की खुलकर हँसने और बोलने तक पर… खुल कर बोलने वाली औरतोँ के लिये गलत सोच रखता है समाज।
सामाजिक जीवन या फेस बुक पर ही देख ले पुरुष की तुलना मेँ कितने प्रतिशत स्त्रियां खुलकर अपनी बात कह पाती है? इसका कारण सिर्फ सामाजिक दवाब है…. चाह कर भी कुछ न कह पाना।
औरत जब तक ये बंदिश मानती तब तक सब ठीक है। लेकिन,अगर वह बंदिश मानने से इंकार कर देती है, तो उसे समाज द्वारा असामाजिक /चरित्रहीन घोषित कर दिया जाता है ताकि दूसरी स्त्रियाँ स्वतंत्र होने की बात भी न सोचे यही सोशलाईजेशन है।
शुरू से ही पुरुष प्रधान समाज में लङकी आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा के लिए पति/पिता परिवार पर आश्रित थी… मजबूरी में खुद के ऊपर ये बंदिश स्वीकार कर लेती थी। धीरे धीरे ये बात औरत समाज के दिमाग में बैठ गयी वह बंदिश में ही आजादी मानने लगी।
लेकिन, क्या अब इस बात के लिए केवल पुरूष ही जिम्मेदार है? क्या अब इन बंदिशों के सोशलाईजेशन के लिए पुरुष के साथ-साथ खुद औरत समाज जिम्मेदार नहीं??
आखिर.. अपनी ही बंदिश पर स्वीकृति का मुहर लगा देना कम बङा अपराध है? आखिर क्यूँ एक औरत ही औरत की स्वतंत्रता के खिलाफ खङी हो जाती है ??
मेरा मानना है कि शर्म औरत का आभूषण नहीं, बल्कि हथकङी है.. एक ऐसी हथकङी जो अदृश्य रहकर भी लोहे की जंजीर से ज्यादा प्रभावी कैद रखती है।
औरत को बंदिश में गिरफ्तार तो समाज करता है, लेकिन समाज के साथ साथ खुद औरत ही औरत को बंदिशों के जेल में ठूंस देती है.