प्रेम : यही वो सुख है जो परिभाषित नहीं किया जा सकता महसूस किया जा सकता है.

By :- Saurabh Dwivedi

सुनो आज सारा दिन विकराल गर्मी मे बीता है। दिन भर की तपन और बिजली ना होने का दर्द कुछ ऐसा रहा कि कुछ लिख – पढ़ भी नहीं सका। जानती हो जिंदगी में लिखना – पढ़ना भी कितना अच्छा है। कुछ नहीं तो मन इसी मे बहल जाता है। किन्तु जब इससे भी दूरी होने का संकट उत्पन्न हो जाए तो जिंदगी कितनी उदास हो जाती है ?

अरे कुछ काम भी करने थे। जैसे कि एक महत्वपूर्ण इंटरव्यू पूरा करना था। उससे मेरा नजरिया है कि भविष्य में क्रांतिकारी बदलाव के लिए संभवतः कुछ काम हो जाए और कुछ कदम चलने का सुख मिल जाए। ऊपर से पढ़कर जो सुख मिलता है और जीवन का मार्ग प्रशस्त होता है , वह भी थम गया था।

इधर दिन भर की टेंशन शाम को इंटेंशन मे बदल गई। हाँ बिजली आने के साथ सुख महसूस हुआ तो महसूस हुआ कि तुम मे भी ऐसा ही सुख है , जिसे मैं शब्दों से बयां नहीं कर पाया। हमेशा अपरिभाषित रह गया ये सुख ?

चूंकि मैं झूलता रहा इधर से उधर तुम्हारे इर्द-गिर्द कि कितनी महसूस होती हो ? आखिर क्यों ? जिससे मिला नहीं उसका सुख और जब मिला अहसास ही अहसास में प्रत्यक्ष महसूस किया तो कितना सुखद पल रहा। जो सिर्फ सीने मे महसूस होता है , तुमसे शब्दों मे कह नहीं सकता। ये तो तुम्हे भी महसूसना होगा।

मालूम है मुझे रचकर ही सुख मिल जाता है। मैं रचता भी इसलिये हूँ कि मुझे महसूस होता कि एक दिन , एक पल वो भी आएगा जब मैं इस गहरे आत्मीय प्रेमिल स्पर्श को कुछ अद्भुत स्वरूप दे पाऊंगा। अर्थात एक ऐसी रचना होगी जो सभी को संसार में स्पर्श कर आसमान में विलीन होगी। कुछ ऐसी शाम की तरह जिस शाम तुम रची जा रही हो।

हाँ ऐसे ही है जब मन मे आया। कोई एक लाइन ( वाक्य ) बस फिर मेरी कलम चल जाती है। सहर्ष चलती है बेशक दर्द रचूं या उत्साह और तुम्हारे संग महसूस किए गए काल्पनिक पल जिनमें तुम मेरे अधरों की संगिनी बन होठो पर बिखर जाती हो।

किन्तु कभी-कभी एक वाक्य आते हुए भी नहीं रच पाता। आंखो में आंसू लिए हृदय से मना कर देता हूँ कि नहीं है मेरी हिम्मत जैसे आज बिजली ना होने पर अंदर हाहाकार मचा था जो सिर्फ अपना ही दर्द नहीं औरों के दर्द की वजह भी थी। साथ ही उदासी इस बात की जब जन जन की चेतना सुप्त हो गई है तब कोई आंदोलन कहाँ हो सकता है ? हमारे यहाँ तो कहने को लोकतंत्र है पर हकीकत में अधिकारी तंत्र है और दलालों की दुनिया है। ओह खैर देखो आत्मीय प्रेम मे भी ये पालिटिक्स आ गई।

जरा सुनो तो तुमसे पहले यही मेरी इच्छाशक्ति थी जो मुझे तुम तक ले आई। चूंकि बचपन से लेकर युवा होने तक कम से कम इंटर क्लासेज तक भी जब लगा कि जीवन नहीं है क्या ? तो यही इच्छाशक्ति थी कि एक दिन राजनीति करके बहुत कुछ करना है पर इरादा अभी त्याग दिया इस गंदगी और नफरत , ईर्ष्या , द्वेष की दुनिया को देखकर !

मुझे कहना ये था कि तुम अपरिमित सुख हो और जानती हो अपरिमित ही काल्पनिक है। यही तुम हो मेरे प्रेम काल्पनिक दुनिया हकीकत में। शाम को मिले सुख की तरह हो कि बस तुम में मेरी शाम हो जाए। सूर्य की ठंडक और चांद की चांदनी या हो अंधेरी रात तो तुम्हारी चांदनी बिखर जाएगी। उस चांदनी में नैसर्गिक सुख की कल्पना है। हाँ यही वो सुख है जो तड़प के बाद है , साधारण लोगों के वश की बात नहीं है। वही समझ सकती है जो स्वयं सृजन करती है संसार का और तुम अवश्य महसूस करोगी इस सुख को। बस यही वो सुख है जो परिभाषित नहीं किया जा सकता महसूस किया जा सकता है , मेरी सुखनंदनी।

तुम्हारा ” सखा “