परम्परा मनुष्य के लिए या मनुष्य परम्पराओं के लिए ?

By – Nitin bhadauria

तेजस्वी राष्ट्रीय संत #तरुण सागर जी का निधन हो गया पूरा देश दुखी है भला ये भी कोई आयु थी जाने की, अभी तो मात्र 51 साल की आयु थी मुनिवर की। अभी तो उनको बहुत कुछ सीख देनी थी इस देश को समाज को।

उन्होंने हमेशा सत्य को महत्व दिया इसलिए उनके उपदेश कड़वे प्रवचन कहे जाते हैं लेकिन उनकी मृत्यु मुझे स्वीकार नहीं इसलिए अपनी बात कह रहा हूँ जो शायद आप सब को कड़वी लग सकती है।

तरुण सागर जी एक साध्य बीमारी से पीड़ित थे जिसके उपचार संभव था वैसे भी वो आंशिक रूप से एलोपैथिक उपचार ले रहे थे फिर पूर्ण एलोपैथिक उपचार में क्या समस्या थी जिसमें एक शल्य चिकित्सा भी शामिल थी लेकिन दिगम्बर मुनि परम्परा के अनुसार उनको अपना मुनि पद त्यागना पड़ता जो शायद उनके जीवन भर की कमाई थी मात्र 15 साल की उम्र में दीक्षा लेने वाले तरुण जी आज मुनि पद पर आसीन थे।

क्या सभी सन्त समाज उनकी जीवन रक्षा के लिए मुनि पद से अल्पकालीन अवकाश नहीं दे सकता था क्योंकि मात्र 51 वर्ष की आयु में ऐसे प्राण त्यागने उचित नहीं तरुण सागर जी जैसे व्यक्तित्व के क्योंकि ये एक सम्पूर्ण समाज और देश की हानि है।

एक बार तरुण सागर जी का स्वास्थ्य खराब हो जाने के कारण उन्हें वाहन की सुविधा लेनी पड़ी थी, दिगम्बर मुनि होकर वाहन सुविधा ली ये बात संत समाज के एक वर्ग को नागवार गुजरी और उनका बहुत विरोध हुआ था।

अपने कवच में सुरक्षित महसूस कर रही एक समाज की साक्षरता भले ही सौ प्रतिशत हो चुकी हो लेकिन धार्मिक पिछड़ेपन की हालत यह है कि वह समय के साथ थोड़ा सा भी बदलाव लाकर किसी मुनिको यह रास्ता देने तैयार नहीं कि अपने प्राण व सम्मान बचाते हुए वह अस्थाई तौर पर मुनिपद को त्याग सके।

कोई मुनिपद से वंचित हुआ इसे कलंक के रूप में ढोने की प्रथा समाज में कुरीति की तरह व्याप्त है।…कुछ साल पहले ही सागर शहर के एक अन्यतम प्रतिभसंपन्न जैन मुनि #क्षमासागर ने पथरी जैसी उपचार योग्य बीमारी से एक दशक तक पीड़ा भोगने के पश्चात ऐसी ही छोटी उम्र में संल्लेखना से प्राण त्यागे। क्षमासागर अपना जो साहित्य छोड़कर गये हैं उसके अध्ययन से पता चलता है कि समाज ने एक मुनि के अलावा भी बहुत कुछ खो दिया है। उनके गुरू चाहते तो छोटे से उपचार का अवकाश देने का आदेश जारी कर सकते थे लेकिन बुंदेलखंड की कठोरतम जैनपरंपरा और इसकी अनुगामी समाज इसकी सामाजिक अनुमति देने के बजाए अंत्येष्टि में एक लाख की भीड़ में चुपचाप खड़े हो जाना पसंद करती है।

जबकि अतीत के पन्नों को खंगालने पर इतिहास गवाही देता है कि जब आचार्य समन्तभद्र को व्याधी हुई थी तब उनके गुरू ने दीक्षा छेद कर उपचार कराने को कहा
और उपचार के बाद वह ठीक हो गये तो पुनः दीक्षित होकर धर्म की असीमित प्रभावना की
तो क्या ऐसा वर्तमान में नही हो सकता??

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।