आजाद भारत की पुलिस और गुलामी काल की पुलिस मे कितना अंतर !
@Saurabh Dwivedi
एक दिन शाम को मैं बाइक से सामान्य रफ्तार मे गंतव्य की ओर जा रहा था। अचानक से मेरे सामने डायल 112 की बोलेरो आ जाती है। वह टर्न ले रहे थे।
मुझे पर्याप्त जगह नजर आ रही थी। मैंने सोचा कि सामने से निकल जाता हूँ पर ड्राइवर ने वैसे ही गाड़ी आगे बढ़ाई और मैंने ब्रेक ले लिया। उसकी गाड़ी टर्न नहीं ले पाई तो उसने फिर से बोलेरो बैक की , ठीक इतने में एक सिताराधारी खाकी वाले की चीखती हुई आवाज का सामना हुआ।
वह कहने लगे कि अरे निकलते हो कि नहीं और आगे बढ़ाने को बोलने लगे , यह कहना ठीक था परंतु अंदाज किसी गुंडे की तरह था !
मैंने मास्क के रूप में बंधी हुई रूमाल नीचे की ओर खींच ली फिर बाइक का स्विच ऑफ कर दिया। मेरे पीछे दो चार वाहन और आ गए। वैसे ही फिर से सिताराधारी ने धमकाती हुई आवाज में बोला कि निकालोगे ?
मैंने कहा ‘ हाँ ‘ निकालूंगा। लेकिन आप जब प्यार से बोलोगे। ट्रैफिक मे आप हो और टर्न भी आप ले रहे हो , मैं भी ट्रैफिक मे हूँ। आगे-पीछे करने में इतना होना स्वाभाविक है। किन्तु आपकी जो आवाज है वो मुझे भयभीत करती है। जैसे कि मैं कोई अपराधी होऊं ! और आप मुझ पर बरस पड़ना चाहते हों। इसलिए मैंने भी बाइक का स्विच ऑफ कर दिया कि पहले आप गुंडे वाली भाषा से मेरा मान मर्दन कर लो।
इतने में वो समझ चुके थे। उनमें से एक मुस्कुराया और फिर संभवतः अंधेरे मे ही हल्का – फुल्का मेरा परिचय भी हो गया। कोई एक पहचानते थे। यह मुझे समझ मे आ चुका था।
सिताराधारी की आवाज मे लचक आ चुकी थी। उसी लचक के साथ मैंने अपनी बाइक उनके सामने से निकाली फिर वह टर्न कर आगे बढ़ सके।
जब मैं गंतव्य की ओर चल रहा था। उस वक्त सोच रहा था कि गुलामी के समय अंग्रेजों की पुलिस भारतीय नागरिकों को प्रताड़ित करती थी। उस वक्त हमारा स्वर्ग सा भारत नर्क बन चुका था। अंग्रेज पुलिस का मतलब ही प्रताड़ित करना था।
अंग्रेज पुलिस भारतीयों को गाली – गलौज करती और मारती – पीटती थी। वह दबाव बनाए रखने के लिए पूरा काम करती थी। लगभग प्रत्येक भारतीय अंग्रेज पुलिस से नफरत करता था। अंग्रेज पुलिस और भारतीयों के बीच दुश्मनी का भाव रहता था। ऐसा सबकुछ इतिहास से पता चलता है।
अब आजाद भारत की पुलिस है। आजाद भारत की पुलिस भी अंग्रेज पुलिस की तरह गाली – गलौज करती हुई दिखती है। यह कहावत भी खूब प्रसिद्ध रही कि ‘ पुलिस वाला गुंडा ‘ !
खाकी वर्दी को देखते ही सामान्य लोगों मे भय उभरकर सामने आ जाता है। गांव मे पुलिस आ जाए तो बिना घोषणा के खबर फैल जाती है कि पुलिस आई है पुलिस ……….. !
कहीं चौराहे पर पुलिस दिख जाए तो बाइक सवार समझ जाते हैं कि चेकिंग चालू है। उन्हें भरोसा हो जाता है कि अब चालान तो कटना है। कागज पूरे भी हों तो कमी निकल आएगी और तनिक सी कमी से भी बख्शा नहीं जाएगा। वे लोग यह भी जानते हैं कि कोई प्रभावशाली व्यक्ति होने पर पुलिस उसे ‘ पाक साफ ‘ निकल जाने देती है।
आजाद भारत मे पुलिस की इतनी सी प्रासंगिकता है कि अपराधियों से ज्यादा खौफ आम आदमी उनसे खाता है। सामान्य जनों पर पुलिस की बड़ी धमक है।
इस धमक को समाप्त करने के लिए एक समय पुलिस मित्र की खूब चर्चा हुई। यह कहा जाने लगा कि पुलिस जनता की मित्र होगी। लेकिन जनता और पुलिस की मित्रता सांप और नेवले वाली मित्रता है , जो असंभव नजर आती है। काश एक दिन ऐसा हो कि निर्दोष आदमी भी थाने के अंदर दारोगा जी को मित्र समझकर बिना किसी माध्यम के आ सके और अपनी बात कह सके।
इस देश – प्रदेश मे गुलामी काल की पुलिस और आजादी की पुलिस में लोक व्यवहार को लेकर कुछ खास अंतर नजर नहीं आता। पुलिस के कार्य – व्यवहार से गुलामी और आजादी का अंतर खोज लेना चाहिए। आजाद भारत में आजादी कितनी प्रगतिशील है ? क्या वास्तव मे आजादी है ? अगर आजादी मिली है तो जनता के मन में पुलिस का भय क्यों ?
दावे के साथ कहा जा सकता है कि यदि पुलिस मित्र होती तो अपराध कितना कम होता ! पुलिस जनता की मित्र नहीं बन सकी इसके कारणों पर नजर डालनी चाहिए। लोकतंत्र मे नेतृत्व करने वाले अगर वास्तव मे नेतृत्वकर्ता होते तो तय था कि भारतीय भेष – भूषा में अंग्रेज मानसिकता की पुलिस ना महसूस होती जो आम जन के लिए उतनी ही खतरनाक है।
मुझे बचपन मे ही यह बताया गया था कि बेटा ना पुलिस की मित्रता अच्छी होती है और ना पुलिस से दुश्मनी अच्छी होती है ! हालांकि अब व्यक्तिगत तौर पर बदलाव खूब आया है , बहुत से पुलिस वाले व्यक्तिगत रूप से बहुत अच्छे हैं पर शासन – सत्ता के प्रभाव और दबाव मे उनकी भी नौकरी रहती है।
इस देश – प्रदेश में पुलिस रिफाॅर्म की बहुत जरूरत है पर उससे पहले राजनीति में बदलाव की जरूरत है। जब तक अच्छे नेतृत्वकर्ता नहीं होंगे तब तक पुलिस जैसे विभाग में आवश्यक बदलाव नजर नहीं आएगा।
हमारे देश मे रामराज्य की बातें खूब होती हैं। अब राम मंदिर भी बनने की ओर अग्रसर है। श्री आशुतोष राणा द्वारा रचित ग्रंथ रामराज्य में मंथरा – कैकेयी संवाद में कैकेयी कहती हैं कि शत्रुघ्न भावुक है और राम संवेदनशील है। एक राजा भावुक होने से ज्यादा संवेदनशील होना चाहिए। इसलिए राम राजा के रूप में उनकी पहली पसंद थे।
अब विचारणीय है कि वर्तमान में कैसे लोग आप पर शासन कर रहे हैं ना वो भावुक हैं और ना संवेदनशील हैं , जब असंवेदनशील आपराधिक मानसिकता के लोग शासन सत्ता संभाल रहे हों तो वहाँ रामराज्य की अवधारणा कोरी कल्पना मात्र रह जाती है।
जनता को स्वयं विचार करना चाहिए कि अपनी काल्पनिक आजादी में गुलामी जैसा जीवन स्वयं आपने चुना है। जहाँ अपनी ही पुलिस से भय का वातावरण हो वहाँ आजादी सिर्फ आजादी का जश्न मनाने के लिए रह जाती है। वक्त अभी भी है कि नेतृत्व में बदलाव ग्राम पंचायत से शुरू हो और संवेदनशील नेतृत्वकर्ता चुने जाएं। एक मानवीय , सुखमय और प्रेममय जिंदगी मे ही आजादी महसूस की जा सकती है , वह तब होगा जब जन – जन के मन से मानसिक संक्रमण समाप्त हो और अधिक मात्रा में संवेदनशील नेतृत्वकर्ता लोकतंत्र के घोड़े की लगाम हाथों मे ले सकें , उस दिन गुड पुलिसिंग मिलेगी वरना लोकतंत्र नामक घोड़े की टाप में जिंदगियां कुचली जाती रही हैं और कुचली जाएंगी। इसे ही कहते हैं कि आजादी के ताज में गुलामी की जिंदगी जीना।
यह आजादी तब तक भ्रम है जब तक अपने ही प्रशासन से भय लगता रहे , इस सच्चाई से कोई इंकार नहीं कर सकता कि हम अपने ही प्रशासन से भयभीत रहते हैं। आम जन साहब से बेबाकी से बात नहीं कह सकते तो समझिए कि यह मानसिक गुलामी का समय है। हम अपने ही देश मे बहुत कुछ हार चुके हैं , जिसके विजय का रहस्य हमारे अंदर ही है और उस रहस्य को उजागर कर नई सोच – नई ऊर्जा से आंतरिक परिवर्तन की आवश्यकता है।
लोकतंत्र मे अच्छा पुलिस प्रशासन उस दिन ही मिलेगा जब संवेदनशील राजनीतिज्ञों के हाथ में लोकतंत्र की लगाम होगी। क्या यह परिवर्तन आ पाएगा ? जनता मानसिक परिवर्तन के रास्ते से व्यवस्था परिवर्तन के लिए तैयार हो पाएगी ? असंभव लगता है ! किन्तु संभव सबकुछ है। अब भी कुछ अच्छे लोग हैं , संवेदनशील हैं जिनकी वजह से ये दुनिया चल रही है और लोकतंत्र चल रहा है।
एक अच्छी पुलिस के लिए संवेदनशील नेतृत्वकर्ताओं को चुनना होगा। जिस दिन यह संभव होगा उस दिन आजाद भारत की आजाद पुलिस मिल जाएगी , एक अच्छी पुलिस मिल जाएगी।
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