@Saurabh Dwivedi
रामराज्य का मिल जाना मात्र एक किताब का प्राप्त हो जाना नहीं है , अपितु मन – मस्तिष्क एवं रोमकूपों में ऊर्जा का प्राप्त हो जाना है ! रामराज्य प्राप्त होते ही जिस ऊर्जा का संचार हुआ मानों प्रतीत हुआ कि अभी-अभी संपूर्णता प्राप्त हुई हो , जैसे शब्द – अमृत कलश प्राप्त हो गया हो।
यह सच है कि आदरणीय आशुतोष राना जी पर टिप्पणी करने की योग्यता मुझ मे नहीं है। उनके समक्ष मात्र एक तिनका हूँ और तिनके को सहारा देने का काम श्री आशुतोष ही कर सकते हैं , जो स्वयं अपने नाम की उद्घोषणा कर दें !
एक विलक्षण प्रतिभा का दर्शन किताब के शुरूआती पृष्ठों पर ही प्राप्त हो जाता है। एक शिशु की जिज्ञासा तदनंतर जिज्ञासा का तृप्त हो जाना , एक अद्भुत घटना का वर्णन है।
भगवान् शिव के समीप रामचंद्र की तस्वीर रखी थी।
अब बालक मन है। बाल – मन ने पंडित जी और माता-पिता से सवाल कर दिया अर्थात जिज्ञासा प्रकट की , कि जिनकी तस्वीर रखी है। वो क्या भगवान् शिव हैं ?
बाल – मन को जवाब मिलता है कि नहीं यह भगवान रामचंद्र की तस्वीर है।
अब यही बाल – मन का हठ है अथवा एक स्वतंत्र जिज्ञासा कि आप पूजा शिव जी की कर रहे हैं परंतु तस्वीर रामचंद्र जी की रखे हुए हैं ?
अब जो जवाब प्राप्त हुआ। उसमे संसार का भी सार तत्व है। मानवता का गूढ रहस्य छिपा है।
उन्हें जवाब मिलता है कि भगवान शिव और भगवान रामचंद्र दोनों एक-दूसरे को भगवान मानते हैं !
श्री आशुतोष के बालमन ने कहा कि पहली बार सुना है कि कोई एक भगवान दूसरे को अपना भगवान मानते हैं !
यहीं पर श्रेष्ठता का भाव है। भगवान अर्थात श्रेष्ठ भाव। संसार मे श्रेष्ठता की जंग है। तनिक सी सफलता एक व्यक्ति को श्रेष्ठ भाव महसूस करा देती है और फिर वह अपने समक्ष किसी और को श्रेष्ठ नहीं मानता और ना ही मानने दे सकता है ! जबकि आत्मसात करने योग्य है कि रामचंद्र जी एवं शिव जी दोनों एक-दूसरे को भगवान अर्थात सांसारिक भाव मे श्रेष्ठ मानते हैं , दोनों एक-दूसरे को अत्यंत प्रिय हैं।
इसी जिज्ञासा के पूर्ण होने पर ही राना जी ने स्वयं अपने नाम ‘ आशुतोष ‘ की घोषणा की थी। यह भी आपके बचपन की अद्भुत घटना है।
बचपन मे आपकी जिज्ञासा को तृप्ति प्राप्त होने की वजह ही कही जा सकती है कि आभासी संसार मे आप लगभग सभी की जिज्ञासा शांत करने का पूर्ण प्रयास करते हैं।
सभी को आदर देने का शब्द ‘ आदरणीय ‘ प्रयुक्त करने के पीछे यही रहस्य छिपा हुआ है , चूंकि रामचंद जी – शिवजी दोनों के एक – दूसरे को भगवान मानते हैं तो हम सभी मनुष्य एक – दूसरे के लिए आदरणीय हो सकते हैं।
मुझे रामराज्य प्राप्त होने के समय जो ऊर्जा मिली ठीक वैसी ही अभिव्यक्ति प्रस्तुत करने की कोशिश की है। आदरणीय आशुतोष राना और रामचंद्र जी पर कुछ भी लिखना मेरे वश की बात नहीं है।
मैं मां तुल्य सुबोध मित्तल जी का आजीवन कृतज्ञ रहूंगा कि मेरे अंतर्मन को प्रकाशित करने वाले ग्रंथ रामराज्य को मुझ तक भेजने में प्रमुख भूमिका का निर्वहन किया है , जैसे अर्जुन के सारथी कृष्ण थे। वैसे ही मुझ तक रामराज्य पहुंचाने की सारथी कृष्ण समान आप हैं।
अंत मे इतना ही कहूंगा कि बचपन की घटनाओं का जीवन पर्यंत असर पड़ता है। अतः माता-पिता और गुरू को बचपन मे सबसे अधिक ध्यान रखने की आवश्यकता है ताकि बचपन की अच्छी घटनाओं से युवावस्था और जीवन पर्यंत तक बच्चे ‘ आशुतोष राना ‘ हो जाएं।
यह संसार आज भी दैवीय संपदा – आसुरी संपदा के बीच संघर्षरत है और आसुरी प्रवृत्ति के लोगों ने सर्वप्रथम ईश्वर के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े किए हैं ! यदि ईश्वर के प्रति ही मन मे शंका उत्पन्न हो गई तो मन मे आसुरी प्रवृत्ति के समा जाने का छिद्र बन जाता है और मनुष्य के मन मे यदि आसुरी प्रवृत्ति का वास हो गया तो आसुरी प्रवृत्ति की दैवीय प्रवृत्ति पर विजय सुनिश्चित हो जाएगी।
किन्तु विजय हमेशा दैवीय संपदा की हुई है। दैवीय प्रवृत्ति की विजय आदरणीय आशुतोष राना द्वारा रचित ” रामराज्य ” जैसे ग्रंथ से सुनिश्चित होती है।
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