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भारत मे चुनाव सुधारो पर पिछले तीन चार दशको मे कुछ काम तो हुआ है किंतु उन तमाम अथवा कुछ हुये काम का जो परिणाम सुधारात्मक परिवर्तन के रुप मे दिखाई पडना चाहिए था वह शायद देखने को नही मिला।

एक समय मे  देश मे लोकसभा तथा प्रांतीय विधान सभाओ के चुनाव एक साथ संपन्न करवाये जाते थे तब वास्तविक रुप मे जो परिणाम आते थे वह जन आकाॅक्षाओ का बहुत सीमा तक प्रतिबिंब ही कहे जा सकते है प्राॅतो तथा केंद्र के बीच आये दिन होने वाली टकराहट अत्यंत अल्प होती थी।

सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि चुनावी व्यय बहुत सीमित होते रहे । आपात काल के पश्चात देश मे लोक सभा व विधान सभाओ के चुनाव न केवल भिन्न भिन्न प्रकार से अलग अलग होने लगे बल्कि धीरे धीरे अब तो यह स्थिति बन गई है कि प्रत्येक वर्ष चुनाव चुनाव का ही शोर होता रहता है।

इससे स्वाभाविक रुप मे जो सबसे बडे दो घातक परिणाम देश देख रहा है वह चुनावी व्यस्तता के चलते सरकारी काम काज का प्रभावित होना तथा चुनावी खर्च अत्यंत शर्मनाक सीमा तक बढ जाना । चुनाव खर्च अनाप शनाप होने अथवा किये जाने का प्रभाव तो इस देश का आम नागरिक ही भुगतता है।

क्या यह लोकहित के लिये अत्यंत घातक एवम शर्मनाक दंश नही कहा जायेगा ? लोक हित के नाम पर मुफ्त सामान बांटने वाले विभिन्न राजनीतिक दल इस महत्वपूर्ण विंदु पर कुशल अर्थ विशेषज्ञ लगा कर आकलन करवा सकते है कि चुनाव चुनाव के शोर को पूरे वर्ष चलाने मे होने वाले खर्च कितने है जिसका बोझ भारत का गरीब मजदूर किसान व्यापारी महिला पुरुष सभी उठाने को विवश है तथा मुफ्त मे बाॅटी जाने वाली सामग्री की लागत क्या है ? चुनावी शोर तथा किये जाने वाले खर्च ( सरकारी व राजनीतिक दलो दोनो के द्वारा ) का दुष्परिणाम महंगई पर तो पडता है इससे राष्ट्रीय कार्यदक्षता भी प्रभावित होती है।


नब्बे के दशक मे टी एन शेषन के समय कुछ प्रभावी चुनाव सुधार हुये थे उनका कुछ परिणाम तत्कालीन समय मे तो दिखाई पडा पर अब तो सब आपा धापी के शोर दबता खोता जैसा लगने लगा है।

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले वर्षो मे एकाधिक बार लोकसभा व विधानसभा चुनाव एक साथ करवाये जाने की बात बडे जोरदार तरीके से की है। अभी अभी हिमाॅचल , गुजरात पॅजाब के चुनाव हुये ही थे कि कुछ ही महीने मे कर्नाटक के चुनाव गत सप्ताह हुये।

पांच महीने बाद मध्य प्रदेश राजस्थान छत्तीसगढ तेलंगाना सहित पाॅच राज्यो मे चुनाव है। उसके ठीक चार माह बाद लोकसभा चुनाव होने है । क्या हमारे लोकतंत्र की मजबूती तथा और अधिक समय श्रम धन की बर्बादी रोकने के लिये राजनीतिक दल आगामी विधान सभा व दो हजार चौबीस के लोकसभा अथवा बाद मे कुछ प्राॅतीय विधान सभा चुनाव को एक साथ करवाने की ओर गंभीरता से विचार विमर्श कर सकते है ?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विचार राजनीतिक नही बल्कि इसे व्यापक राष्ट्रीय हितो के पोषण के रुप मे लिया जाये तो एक बडा बदलाव देखने को मिल सकता है जिसकी कोख मे आम नागरिक के लिये ऐतिहासिक कल्याण का भ्रूण छिपा प्राप्त हो सकता है।

भारतीय जनताशपार्टी एवम कांग्रेस व आप  सहित तमाम राजनीतिक दलो को बिना विलंब के इस बडे राष्ट्रीय मुद्दे पर गंभीर होकर एक मत होना होगा। लोक सभा तथा विधान सभा के प्रस्तावित चुनाव एक साथ करवाने के लिये चुनावी विधान सभाओ का कार्यकाल बढाना पड सकता है अथवा तो लोकसभा चुनाव कुछ माह पूर्व करवाये जाना पड सकते है यह तो राजनीतिक दलो की आपसी सहमति से ही सुनिश्चित हो सकता है। परंतु अपेक्षित चुनाव सुधार का होना शायद अब अत्यंत आवश्यक होता जा रहा है ।

देवी प्रसाद गुप्ता
संपादक हरदौल वाणी हमीरपुर

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