काश
इश्क की भी
अदालत होती ?
स्वयं मैं
मुवक्किल होता
वकील भी होता
जज तुम ही होती
आधी रात को
मुहब्बत की खातिर
अदालत का दरवाजा
खटखटाता …
खुल जाती
इश्क की भी
अदालत
रखता दलीलों में
अपना दुख दर्द
इंतजार के लम्हे
एहसास भी ….
साँसो का तेज होना
सीने पर तूफान आना
आंखो का अश्रुपूर्ण होना
होठों की स्याह मुस्कान
कांपते हुए
सुना देता
प्रेम की दास्तान
जज साहिबा बनी तुम
आर्डर आर्डर कहती
मैं एकदम शांत सा
खड़ा हो जाता
फैसले की घड़ी में
समस्त दलील सुनी
जाने के बाद …
फैसला सुनाती
मुहब्बत का फ्लोर टेस्ट
देना होगा …
मैं चुन लेता
आजीवन रच रच कर
मुहब्बत का
बहुमत जुटा लूंगा
बनी रहती
मेरी भी
मुहब्बत की सरकार … !
तुम्हारा “सखा”