By :- Saurabh Dwivedi
प्रेम का रंग अगर कुछ हो सकता है तो वह आकाश सा हो सकता है। आसमान समय की गति से बदलते मौसम के अनुसार अपना रंग बदल लेता है या बदल जाता है। बादलों से घिर जाता है आकाश ! बारिश के मौसम में इंद्रधनुष कहीं अगर आकार लेता है तो वह आकाश में !
सतरंगी इंद्रधनुष मनमोहक होता है। बचपन में यह भी सुना था कि इंद्रधनुष को देख मन्नत मांग ली जाए तो वह पूरी हो जाती है। प्रेम और मन्नत का गहरा संबंध है। ऐसा ही एक संबंध प्रेम का होता है जो अंतस की कामना से आकार लेता है।
प्रेम संबंध में अहसास आसमान में उकेरे जा सकते हैं। यथोचित होता भी ऐसा है कि आसमानी कल्पना में प्रेम को साकार किया जाता है। जाने कितने गीत – संगीत जमीं और आसमान के दरम्यां प्रेम को परिभाषित करने को बनाए गए। तमाम रचनाकारों ने प्रेम मे तृप्ति को बारिश और भीगती धरती को संज्ञा प्रदान कर दी !
सच में होता भी ऐसा है कि बारिश की बूँदों से तपती धरती ठंडक महसूस करती है। देह मे जैसे असंख्य रोम छिद्र होते हैं वैसे ही मिट्टी में असंख्य छिद्र होते हैं और वहीं से बूँद – बूँद रसातल में समाती चली जाती हैं। जिसे पाताल लोक कहा जाता है। जहाँ जल का स्रोत पाया जाता है। धरती अंदर से भीग कर संतुष्ट महसूस होने लगती है। तपन थोड़ी कम हो जाती है और उमस से निजात मिल जाती है। एक संतुष्टि महसूस होने लगती है।
इस संतुष्टि को तृप्ति की संज्ञा अवश्य मिली है और तृप्ति का निरंतर चक्र चलता रहता है। अतृप्त होने पर पुनः तृप्ति की कामना का जन्म होना मन की इच्छा कहला जाती है। जैसे बारिश की बूँदें मिट्टी की छिद्रों से अनंत में समाने लगती हैं वैसे ही प्रेम में काल्पनिक भावनाएं रोम छिद्रों से अंतस में समाने लगती हैं।
वैसे तो हृदय ही पर्याप्त है। हृदय के कोने वाला सीना जो अहसास को महसूस कर स्वयं धक – धक होने लगता है। वह महसूस करा देता है कि हाँ कुछ महसूस कर रहा हूँ। ऐसा तब होता है जब एक समान ऊर्जा का संसर्ग होने लगे। एक ऊर्जा दूसरी ऊर्जा को स्वयं मे समाहित करने लगती है।
अब ऊर्जा का रंग क्या हो सकता है ? ऊर्जा के रंग का कहीं कोई विश्लेषण नहीं है। कहीं कोई तथ्य नहीं ! ऊर्जा अदृश्य है और अदृश्य ऊर्जा अपनी ऊर्जा को सदृश्य महसूस कर लेती है। ऊर्जा का काल्पनिक अवतरण करूं तो वह भी आसमानी रंग सी हो सकती है और सिर्फ होने की कल्पना बस क्यों ? प्रेम रंग की कल्पना आसमान सी की जा सकती है तो जहाँ ऊर्जा है , वहीं प्रेम है ! अर्थात ऊर्जा और प्रेम एक हैं। जैसे धूप प्रज्वलित करें और धुंआ ऊपर की ओर गतिमान हो प्रवाहित होने लगता है। यही ऊर्जा है जो प्रज्वलन की प्रक्रिया के बाद दिखने लगती है और अहसास में महसूस होती है।
प्रेम इतना ही काल्पनिक है और इतना ही वास्तविक है। जैसे धरती और आसमान वास्तविक हैं परंतु प्रेम के रूपक में काल्पनिक हैं। इसी कल्पना में सुखमय तृप्ति के अहसास का रहस्य विद्यमान है। इसी में सुख की तड़प निहित है। दूरियों में समीपता का अहसास समाहित है। इसलिये प्रेम में दूरियां गौण हो जाती हैं , ऐसा कहा जाता है और ऐसा माना जाता है। किन्तु यह व्यक्तिगत अनुभव है कि दूरियों में समीपता का अहसास हुआ हो ! व्यक्तिगत अनुभव ही सत्य होता है और यह इतना ही सत्य है जितना कि आसमान और धरती की दूरी की वास्तविकता के साथ प्रेम की कल्पना का साकार होना।
इसलिये प्रेम में दूरियां , रंग और रूप मायने नहीं रखता। वस्तुतः ऊर्जा महसूस होना और समाहित होना महत्वपूर्ण होता है।
तुम्हारा ” सखा ”
बहुत सुंदर व्याख्या