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चित्रकूट : – प्रभारी मंत्री डा. महेन्द्र सिंह के समीक्षा कार्यक्रम के दौरान एक ब्रेकिंग न्यूज सोशल प्लेटफार्म पर बुलेट ट्रेन की रफ्तार से वायरल हुई और शोर – शराबे के साथ नफरत व निराशा के माहौल का जन्म हुआ , तो वहीं कुछ लोगों ने स्वयं ही स्वयं की पीठ किन्नरों के ताली बजाने की तरह थपथपा ली।

सच हमेशा कड़ुवा होता है और कटु सत्य बोलने की मनाही भी इसलिये रखी गई ताकि किसी को बुरा ना लगे परंतु पत्रकारिता से लेकर राजनीति तक अपने संक्रमण काल से गुजर रही है , अतएव कटु सत्य समाज के सामने फटा पोस्टर हीरो निकला की तरह आना जरूरी है।

बड़ी ही सहज सी बात थी , जिलाधिकारी चित्रकूट ने उन अधिकारियों और नेताओं से आग्रह किया था , जो बैठक में अपेक्षित नहीं थे। नियत समय ग्यारह बजे से जल निगम की समीक्षा थी और ठीक अपराह्न बारह बजे से जिला योजना समिति की बैठक आहूत थी।

जिला योजना समिति के सदस्य एवं कुछ अधिकारी ग्यारह बजे ही पहुंच चुके थे , जिनमें से युवा जिला पंचायत सदस्य अनिल प्रधान भी थे। अनिल प्रधान के साथ कुछ अधिकारी भी बाहर आए थे। चूंकि जिलाधिकारी का कहना था कि जिला योजना समिति की बैठक एक घंटे बाद है , आप लोग जागरूक हैं और पहले आ गए। इसलिये धन्यवाद के पात्र हैं। किन्तु इस बैठक में जो अपेक्षित नहीं हैं , वे बाहर चले जाएं।

इतनी सी नियमतः सहज सी बात को जल समस्या और जनता के दुख दर्द से जोड़कर ब्रेकिंग न्यूज चला देना , आखिर कहाँ तक जायज है ? विश्वस्त सूत्रों के मुताबिक कुछ लोगों ने एक्टर की तरह एक्टिंग करने को इंगित कर फिल्मी कैमरामैन की भूमिका निभाते हुए , दुख दर्द से सराबोर अभिनय कर रहे जिला पंचायत सदस्य की फोटो ली और प्रसारित कर दी।

हालांकि सर्वविदित है कि युवा नेता के रूप में अनिल प्रधान एक अच्छे संघर्षशील व समाजसेवी व्यक्तित्व के नेता हैं , मासूम भी इतने हैं कि जन सेवा के भाव में शायद समझ नहीं सके कि इस प्रकार की खबर से क्षणिक प्रसिद्धि तो मिल सकती है परंतु राजनीतिक दृष्टि से समाज के हित में नहीं होता है।

बेवजह ही नफरत के बीज बोने एवं सरकार या सरकार के नुमाइंदे व्यक्ति विशेष को बदनाम करना अच्छे व्यक्तित्व की निशानी भी नहीं है। चूंकि अनिल प्रधान का संघर्ष इतना व्यापक है कि इस एक घटनाक्रम के सिवाय वह बधाई के पात्र हैं।

सवाल उस पत्रकारिता पर है , जिसका भ्रामक और गंदे स्वरूप का गवाह मैं रह चुका हूँ , वह वीडियो बना भी था। सपा सरकार के समय दो पत्रकार साथी फन काढ़ कर किसानों से कह रहे थे कि रो दो , रोओ और रोओ तब खबर बनेगी और तभी तुम्हारी खबर चलेगी फिर सरकार सुनेगी और मुआवजा मिल जाएगा ?

किसान बेचारे मजबूर थे , वे रोने का नाटक करने लगे परंतु नाटक उतना मार्मिक नहीं कर पाए तो कुछ महिलाएं बैठी थीं। उन्होंने महिलाओं के करूण स्वभाव का लाभ उठाया और उद्वेलित कर रूला दिया।

इस प्रकार से प्रायोजित खबर जब बनाई जाती है और वह खबर दुनिया के सामने आती है तो वास्तव में समाज भविष्य को लेकर भयभीत होता है। किन्तु एक पत्रकार को विचार करना होगा कि समाज में विष ना बो कर अमृत की फसल उगाई जाए।

पत्रकार का कर्तव्य वास्तविकता को जनता के सामने रखना है और जब जनता व सरकार के सामने वास्तविकता का दर्शन होगा तब जाकर सामाजिक दर्शन अपने वास्तविक स्वरूप को धारण करेगा।

सनद रहे कि किसी को बाहर निकालना एवं अपेक्षित ना होने में अंतर होता है। अतः स्थानीय स्तर पर पत्रकारिता के विशुद्ध दर्शन हों तो वास्तव में विश्वास बढ़ेगा अन्यथा ऐसी ब्रेकिंग से पैनिक क्रिएट किया जा सकता है पर हमेशा विश्वास कायम नहीं रखा जा सकता। ऐसी पत्रकारिता पर सवाल उठने लगे हैं और उठ रहे सवाल विश्वास को छिन्न-भिन्न कर रहे हैं। अनिल प्रधान से फोन द्वारा बात करने पर ग्यारह बजे का जिक्र करते ही नेटवर्क ना होने और बाद में बात करने की बात कहकर काल कट कर दी गई।

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