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By :- Saurabh Dwivedi

जनपद चित्रकूट की राजनीति हमेशा से गर्मागर्म चर्चा का विषय रही। यहाँ जातीय तनातनी और एक समय तक दस्युओं के प्रभाव वाली राजनीति चरम पर रही है। ब्राह्मण और कुर्मी दो मुख्य जातियों के मध्य पेंडुलम की तरह राजनीति डोलती रही। जो सन् 2007 में भारी भरकम जुलूस के साथ साफ झलक रही थी। जब एक तरफ ब्राह्मण शंख बजाएगा , हाथी नहीं गणेश है जैसे युक्ति संगत नारे बसपा प्रत्याशी दिनेश मिश्रा के पक्ष में लगे थे। वहीं भाजपा से वर्तमान सांसद आरके सिंह पटेल साइकिल की सवारी कर चुनाव जीत लेने का ऐलान किए थे।

यह वो वक्त था , जब जातीय राजनीति खुल्लमखुल्ला दो फाड़ होकर स्पष्ट झलक रही थी। जो मऊ – मानिकपुर उपचुनाव में भी पुनः चर्चा का विषय बनी। इस चुनाव में पुनः एक बार ब्राह्मण मतदाता और कुर्मी मतदाता का ध्रुवीकरण जातीय प्रत्याशी के पक्ष में साफ झलकने लगा था। इसी जातीय समीकरण की राजनीति में आनंद शुक्ला मानिकपुर विधायक बने परंतु इनका संघर्ष और धनाढ्य होना भी इनकी पहचान है। राजनीतिक क्षितिज में सितारे की भांति चमकने के लिए अमावस की अंधेरी रातों को पार करते हुए पूर्णिमा की रात में चांद – तारों के उगने तक का सफर बड़ा दिलचस्प होता है।

आनंद शुक्ला लखनऊ से चित्रकूट तक का सफर फार्चुनर से तय करते हैं। इसी जनपद के प्रमुख नेताओं द्वारा याद दिलाया जाता रहा कि वो यहाँ के नहीं गाजियाबाद के हैं , नोएडा के हैं ! स्पष्ट है कि शुरूआत से ही आनंद शुक्ला को बाहरी होने का टैग मिल गया था। किन्तु वे मऊ मानिकपुर विधानसभा से लगातार दावा पेश करते रहे। उन्होंने स्वयं को यहाँ का बताना शुरू किया , अंततः इस मिथक को तोड़ भी दिया।

सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में प्रत्याशिता की दौड़ से बाहर होना पड़ा और टिकट मिला आरके पटेल को जो शुरूआती ब्राह्मण विरोध के बावजूद भी ब्राह्मण मत प्राप्त कर विधायक बन गए। भाजपा में टिकट प्राप्त करना और विधायक बनना भी बड़ी बात है , जिसकी संभावना से फौरन इंकार किया जा सकता है। किन्तु यह आरके पटेल की व्यक्तिगत राजनीतिक पहचान और जातीय समीकरण के बड़े कारण से संभव हुआ।

इसके बाद आरके पटेल की राजनीति का चमत्कार भाजपा में इस कदर चला कि कुछ नेताओं का सहयोग प्राप्त कर सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी बनकर पुनः सांसदी की दौड़ लगाने लगे। यहीं से उनकी जीत की दरकार के साथ तय होने लगा कि मानिकपुर विधानसभा में उपचुनाव होगा तथा किसी और की किस्मत जगमगाने वाली है।

आरके पटेल के सांसद बनने के साथ ही विधानसभा उम्मीदवार ब्राह्मण हो , इस बात की गूंज जनपद से राजधानी तक गूंजने लगी। आनंद शुक्ला कर , बल , छल और धन से अर्थात पूरी राजनीतिक दृष्टि से विधायक बनने का सपना संजोए थे। इनकी इस राजनीतिक दृष्टि का परिचय लोकसभा चुनाव के दौरान तब मिलता है जब सांसदी की दावेदारी के बाद टिकट ना मिलने पर आरके पटेल के प्रचार-प्रसार में सहज भाव से सम्मलित रहे। इस वक्त स्पष्ट हो गया था कि बंदे में राजनीतिक सूझबूझ बड़ी गहरी है।

जहाँ एक ओर तमाम लोग नाराज होकर नाराजगी जाहिर करते हैं , वहीं आनंद शुक्ला ने नाराजगी की सुगबुगाहट तक नहीं होने दी थी। जब उपचुनाव होने का वक्त आया तब दिल्ली से लेकर लखनऊ और जनपद चित्रकूट तक की परिक्रमा का परिणाम रहा कि सोशल मीडिया के माध्यम से बड़ी आवाज बनकर उभरे और प्रादेशिक नेतृत्व को चुनावी विजय का भरोसा दिलाकर टिकट झटक लाए।

हालांकि जनपद में अपने ही दल के सजातीय नेताओं में भी अपच का कारण बन रहे , शुरूआती चरण में अंदर ही अंदर तमाम बड़के – छुटके नेता नहीं चाहते रहे कि इन्हें चुनावी जीत जैसी बड़ी राजनीतिक सफलता मिले। जिसकी सुगबुगाहट अंदर खाने में खूब शुरू रही।

किन्तु प्रत्येक प्रयास के साथ किस्मत भी अपनी भूमिका निभाती है। आनंद शुक्ला के प्रयास के साथ किस्मत ने बड़ी भूमिका निभाई है। यहाँ की जनता और नेता की नब्ज अभी भी बड़ी जातिवादी किस्म की है। इसी नब्ज की बदौलत आनंद शुक्ला की जीत तय होने के कारण लगातार बनते गए और अंतिम तीन दिनों में चुनाव उनके पक्ष में आ गया।

चूंकि समाजवादी पार्टी से डा. निर्भय सिंह पटेल का टिकट तय हुआ तो एक जातिवादी समीकरण की दुहाई शुरू हो गई। जबकि अनुमान के मुताबिक कहा जा सकता है कि डा. निर्भय सिंह पटेल स्वयं जातिवादी स्वभाव और सोच के व्यक्ति नहीं हैं। अभी वह भी उतने ही बेदाग हैं जितने की राजनीतिक क्षितिज पर आनंद शुक्ला हैं। किन्तु चुनावी कड़ाही जब गरमाने लगी तो कुछ नेताओं में ताव चढ़ गया और उन्होंने कुर्मीवाद का नारा उछाल दिया। ऐसा नारा इसलिये भी संभव हुआ कि सियासी जानकार को लगा कि ब्राह्मण मत का विभाजन तय है।

यहीं से डा. निर्भय सिंह पटेल जितने मजबूत हुए उतने ही कमजोर होते चले गए। चूंकि जनपद के एक बड़े नेता पर भी शक शुरू हुआ और चर्चा इतनी तेज हुई कि ब्राह्मण समाज के बीच साफ संदेश गया कि चुनाव पुनः कुर्मीवाद पर आ टिका है। ऐसे में ब्राह्मणों के हृदय में दर्द उठा कि जातिवादी खाईं को पाटकर आरके पटेल को मतदान कर भारी अंतर से विधायक बनाया। उन्हें महसूस हुआ कि अब पुनः ऐसा जातिवादी समीकरण खड़ा किया जा रहा है।

काउंटिंग के दिन भी भाजपाइयों के बीच भी यही चर्चा रही कि यह जीत ” एकता के खिलाफ एकता की है। “ यहीं पर से उपचुनाव का दृश्य तय हो जाता है। जैसे-जैसे चुनाव कुर्मीवाद पर आ टिका वैसे – वैसे ब्राह्मण मतदाता जो आनंद शुक्ला को मतदान नहीं भी करना चाहता था , वह एकता के सूत्र में बंधकर खामोशी से कमल का बटन दबाने का मन बनाने लगा।

चर्चा इस बात की भी रही कि एक बड़े कुर्मी समाज के नेता ने ठेठ भाषा में कहा था कि ” तुम नहीं जनतेव अबय , ब्राह्मण बहू हुशियार कौम होत ही , जेत्ता कुर्मी – कुर्मी चिल्लइहव ओत्तय बांभन एक नाका से निकर जई ।” यही हुआ भी कि उस बड़े नेता की बात सच साबित हुई। हालांकि उनकी बात भी सजातीय नेता को जिताने के पक्ष में कही हुई साफ प्रतीत होती है।

इस प्रकार के पुनः जातीय ध्रुवीकरण से सीधा नुकसान कांग्रेस प्रत्याशी रंजना बरातीलाल पाण्डेय को हुआ। चूंकि पति कमलेश पाण्डेय ऊर्फ बरातीलाल की छात्र राजनीति की लोकप्रियता और संघर्ष की बदौलत जो फील्ड तैयार थी , उससे ब्राह्मण वर्ग का पर्याप्त मत मिलने के प्रबल आसार बनते जा रहे थे। ऐसा इसलिए भी था कि मऊ – मानिकपुर के ब्राह्मणों का बड़ा वर्ग आनंद शुक्ला को बाहरी प्रत्याशी मानता था। तत्पश्चात स्थानीय ब्राह्मण वर्ग का यह भाव तब समाप्त होने लगा जब कुर्मी समाज जातीय ध्रुवीकरण से भाजपा छोड़ समाजवादी पार्टी की ओर लामबंद होने लगा। अंतिम तीन दिनों में कांग्रेस प्रत्याशी को मिलने वाला ब्राह्मण मत भी ब्राह्मण अस्मिता के सवाल पर आनंद शुक्ला के पक्ष में सरक गया।

इस प्रकार से आनंद शुक्ला की चुनावी जीत में बड़ा कारण जातीय ध्रुवीकरण सिद्ध हुआ। जिसमें व्यक्तिगत आनंद शुक्ला की इच्छाशक्ति का परिणाम रहा कि वह विधायक बन सके। उन्होंने सक्रिय राजनीति की शुरूआत से एक रफ्तार से योजनाबद्ध तरीके से फर्श से अर्श तक संबंध बनाए रखे। पुरूजोर तरीके से कोशिश कर टिकट प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की परंतु अब वह समय आया है कि जब आनंद शुक्ला स्वयं को एक अच्छा जनप्रतिनिधि सिद्ध कर सकें।

चुनावी जीत के बाद वास्तविक सफलता वह है जब आप जनता के मन में निवास करने लगें। जनता को यह महसूस हो कि उनका मत कारगर सिद्ध हुआ है। युवाओं को रोजगार दिलाने , किसानों की समृद्धि का द्वार खोलना और जनता में सुख भाव का जन्म देना। यह सामाजिक काम राजनीतिक सत्ता द्वारा मानसिक परिवर्तन लाकर आनंद शुक्ला कर सकते हैं।

यह सच है कि आनंद शुक्ला के सामने राजनीति का एक ऐसा मैदान है ; जहाँ का योद्धा बनकर व्यापक बदलाव लाने हेतु अपनी पहचान बना सकते हैं। किसी महापुरूष की तरह इतिहास में नाम दर्ज करा सकते हैं। यह जनपद संभावनाओं का क्षितिज है , जहाँ आनंद शुक्ला का अभी-अभी उदय हुआ है। आशाएं की जा सकती हैं कि वह कुछ विशेष करके स्थाई जगह बना लें।

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