लेखिका पदमा शर्मा
री स्त्री..
क्यूँ है यूँ चुप
खोल दे मन की सारी गांठें
रिक्त कर दे
मन का वो भरा कोना..!
कितने खौलते लावे
समेटे है अंदर
ये तेरे लर्जिश-ए-लब
बयाँ करते हैं..!
कितने आबशार रोज़
झरते हैं भीतर
ये नीर नयन
चुगलियां करते हैं..!
बोल..और बता..
जन्म से पहले
ज़िन्दा रहने की जद्दोजहद
और जन्म ले लिया तो
सुरक्षित रहने की फिक्र के
ताप को सहती आई है तू..!
प्रवंचनाओं और
वर्जनाओं के खेल में
सदा ही
हारती आई है तू..!
विश्वास और
अहसास की भूलभुलैया में
सदा
भटकती ही आई है तू..!
बात देह और रूह की हो
तो
वहाँ भी
मात खाती आई है तू..!
बचपन से लेकर
बुढ़ापे तक
“अपने घर” के निशान
ढूंढ़ती आई है तू..!
मत रह अब चुप
बह जाने दे सारा लावा
खाली हो जाने दे मन का कोना
पकने दे खुशियों की फ़सल वहाँ..!
बेशक हालातों पर ज़ोर नहीं
फिर भी हार तो मंज़ूर नहीं
कुछ भी हो टूटना नहीं
तू स्त्री है..
पर कमज़ोर नहीं..!!
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Karwi Chitrakoot }
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