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लेखिका पदमा शर्मा

री स्त्री..

क्यूँ है यूँ चुप
खोल दे मन की सारी गांठें
रिक्त कर दे
मन का वो भरा कोना..!

कितने खौलते लावे
समेटे है अंदर
ये तेरे लर्जिश-ए-लब
बयाँ करते हैं..!

कितने आबशार रोज़
झरते हैं भीतर
ये नीर नयन
चुगलियां करते हैं..!

बोल..और बता..

जन्म से पहले
ज़िन्दा रहने की जद्दोजहद
और जन्म ले लिया तो
सुरक्षित रहने की फिक्र के
ताप को सहती आई है तू..!

प्रवंचनाओं और
वर्जनाओं के खेल में
सदा ही
हारती आई है तू..!

विश्वास और
अहसास की भूलभुलैया में
सदा
भटकती ही आई है तू..!

बात देह और रूह की हो
तो
वहाँ भी
मात खाती आई है तू..!

बचपन से लेकर
बुढ़ापे तक
“अपने घर” के निशान
ढूंढ़ती आई है तू..!

मत रह अब चुप
बह जाने दे सारा लावा
खाली हो जाने दे मन का कोना
पकने दे खुशियों की फ़सल वहाँ..!

बेशक हालातों पर ज़ोर नहीं
फिर भी हार तो मंज़ूर नहीं
कुछ भी हो टूटना नहीं
तू स्त्री है..
पर कमज़ोर नहीं..!!

कृपया कृष्ण धाम ट्रस्ट के सोशल केयर फंड मे साहित्य और जमीनी पत्रकारिता हेतु 100 , 200 , 500 और 1000 ₹ व ऐच्छिक राशि दान हमें ऊर्जा प्रदान करें जिससे हम गांव पर चर्चा सहित ईमानदारी से समस्याओं पर प्रकाश डालकर समाधान करने मे सहायक हों …. Saurabh Chandra Dwivedi
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Karwi Chitrakoot }

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