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By :- Saurabh Dwivedi

जब नाम पढ़ा ” विटामिन जिंदगी ” , खूब आकर्षित करता हुआ नाम ! जिंदगी को विटामिन चाहिए होती है। जिंदगी जीने के लिए विटामिन लेना पड़ता है। ऊर्जावान रहने के लिए एक दिन विटामिन सहारा बनती है। चिकित्सक कमजोर हुए व्यक्ति को विटामिन लेने की सलाह देते हैं। बीमार व्यक्ति को वैज्ञानिक शोध से जन्मी कोई विटामिन की औषधि तंदुरूस्त कर देती है। किन्तु जिंदगी में अनेक ऐसी घटनाएं हो जाती हैं जैसे कि एकाएक कोई ऐसी घटना घटित हो जाए कि जिंदगी मझधार में फंसी महसूस हो ? फिर इस घटना से निकल पाने के लिए उम्मीद और इच्छाशक्ति के साथ सकारात्मक जुझारू सोच अपना काम शुरू करती है। परंतु बहुत से लोग टूटकर बिखर जाते हैं जो टूटकर नहीं बिखरता वो lalit kumar होते हैं , कह सकते हैं ललित कुमार जैसे होते हैं !

मैं स्वयं किताबों को खोजता रहा और किताबों में खोजता रहा ! यह खोज भविष्य में भी अनवरत चलती रहेगी , ऐसी मेरी स्वयं से उम्मीद है। किन्तु इस खोज यात्रा में एक पल को लगा कि मेरी खोज पूरी हो गई , मुझे प्रेरणा मिल गई। मुझे जिंदगी को समीप से महसूस करने का जीवंत अवसर मिल गया। चूंकि मैं पढ़ता रहा और जैसे – जैसे किताब में डूबता गया तो मानों जीवन के साक्षात संघर्ष से वास्ता हो गया। उस पर भी जीवन की जिजीविषा और स्वयं को स्थापित कर देश व समाज के लिए कुछ कर गुजरने की चाहत से रिश्ता महसूस हो गया। ऐसा लगा कि मानों कोई संघर्ष की विशाल निर्मल गाथा पढ़ रहा हूँ।

कहीं – कहीं मन में घृणा उत्पन्न हुई , समाज के प्रति उदासीनता महसूस हुई
ऐसा तब हुआ जब ललित कुमार को बाल सहपाठियों द्वारा उपहास का पात्र होना पड़ा। ठीक इसी वक्त मन में आया कि मानसिक विकलांगता हमारे लिए सबसे अधिक घातक है।

समाज में बच्चों का जन्म हो रहा है और उन बच्चों में सबके प्रति सम्मान भाव प्रकट करने की व्यवहार कुशलता को ना जन्म दें सकें तो बच्चे जनने में और उसके उद्देश्य में खोट महसूस होता है। कहीं निरूद्देश्य बच्चों को जन्म तो नहीं दिया जा रहा है ?

बाल सहपाठी एक विकलांग ( दिव्यांग ) के लिए उपहास भरी सोच रखें तो यह कितना घातक है ? हम मदद का भाव जन्म नहीं दे पा रहे , समान और सम्मान की दृष्टि को बालपन में जन्म नहीं दे पा रहे। या फिर बच्चे परिवार और समाज में घटित होती घटनाओं से यही सीख रहे कि अपने से कमजोर का उपहास करो , फिर यह स्वस्थ समाज के लिए प्रतिकूल परिस्थिति है।

अच्छा लगा उस वक्त जब कोई सहपाठी लेखक का सहयोगी बना। कुछ समय के लिए सही परंतु उसने मदद और अपनत्व प्रदान कर कहीं ना कहीं जीवन ऊर्जा प्रदान की। ऐसे बच्चे समाज के लिए अच्छे होते हैं।

बचपन की मासूमियत और ऊर्जा को दर्शाती विटामिन जिंदगी ! लेखक बचपन से ऊर्जामय महसूस होते हैं। कुछ उम्दा करने की सोच झलकने लगती है। किन्तु कुछ वर्ष पश्चात जिंदगी ऐसी करवट लेती है कि लेखक पोलियो का शिकार हो जाता है , यहीं से संघर्ष की गाथा शुरू हो जाती है। संघर्ष में साथ देने वाले माता-पिता और अन्य रिश्तों को भी नमन करने योग्य है। जबकि तमाम ऐसे शख्स भी मिलेंगे जिन्हें परिवार से ही सहयोगात्मक प्रोत्साहन नहीं मिल पाता है।

सचमुच इस प्रकार की जिंदगी में कोई और होता तो यकीनन वह प्रथम दृष्टया हार मान चुका होता। किन्तु लेखक की देह को पोलियो का अटैक हुआ था , परंतु उसके मन को पोलियो नहीं हुआ था। लेखक मन से नहीं टूटा , एक इच्छाशक्ति अनवरत ऊर्जा की भांति काम करती रही। वह मानसिकता से दृढ़ व्यक्तित्व का उदाहरण है। इस मानसिक विकलांग समाज से दैहिक विकलांगता का शिकार व्यक्ति लगातार संघर्ष करता है। और एक ऊंचे लक्ष्य को प्राप्त करता है।

इसलिये विटामिन जिंदगी अपने आप में सर्वश्रेष्ठ किताब है। संभवतः दुनिया की किसी भी आत्मकथा से सर्वश्रेष्ठ आत्मकथा कहने में कोई गुरेज नहीं। शुक्रिया कहना चाहूंगा लेखक को कि जब कभी मैं जिंदगी में हारता हुआ महसूस करूंगा तो ललित कुमार को स्मरण कर लिया करूंगा। इसलिये यह किताब अपने नाम विटामिन जिंदगी को चरितार्थ करती है।

आग्रह है कि लोग पढ़ें और पढ़ाएं। विचार शक्ति से सोच को सही दशा और दिशा प्रदान करें। जो किताबों में खोजने से प्राप्त की जा सकती है। एक सुखद और सफल जिंदगी के लिए संघर्ष के मायने समझे जा सकते हैं। जीवन को उद्देश्यपूर्ण बनाने के लिए ऐसी किताबें वास्तव मे प्रेरणात्मक हैं।

सचमुच इस किताब में एक खोज को हल्का सा विराम मिला है। परंतु खोज अनवरत जारी रहेगी एक ललित सी सफलता के लिए। जो सचमुच समाज के लिए कुछ कर जाए। प्रतिकूल समय में प्रयास करते-करते अनुकूल समय स्वयं आ जाता है , ऐसा ही साबित करती आत्मकथा है।

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