
स्वतंत्रता ? कहाँ है ? जाति की गुर्राहट मे धर्म की स्वतंत्रता का दमन हो रहा है और कलम की स्वतंत्रता की बात करते हैं , कितना बड़ा मजाक कि जिनका खुद का स्टैंड क्लियर नही है कि कभी जातिवाद के साथ हैं तो कभी राष्ट्रवाद के साथ हैं।
वे नेता कलम की स्वतंत्रता तय कर सकते हैं जिनका खुद का भला ना हो तो राष्ट्र और धर्म के पथ से हटकर जातिवाद के जलते गोला मे जाति विशेष को ढकेल देते हैं , सवाल बहुत बड़ा है !

मानसिक गुलामी को समझिए अगर आपको मुगलों की गुलामी नजर आती है , अंग्रेजों की गुलामी समझ आती है तो मानसिक गुलामी से आजादी के लिए भी तन मन धन झोंकना शुरू करिए , निश्चित रूप से कोई आपको आजाद करा देगा !
विमर्श है कि जब हम इस दौर मे जी रहे हैं जहाँ एक ही दल मे दो – चार गुट हैं और जहाँ उदारता की जगह कट्टरता ने ले ली है तो वहाँ कलम की स्वतंत्रता कहाँ है ?
जब हम इस दौर मे काम कर रहे हैं जहाँ अफसर सिर्फ खुद की गौरव गाथा सुनना चाहता है तो वहाँ आवाज और कलम की स्वतंत्रता कहाँ है ?
जब सच बोलते ही समाज / परिवार के मुखिया कहने लगें कि चुप रहो , बुरा लग जाएगा तो स्वतंत्रता कहाँ है ?

ऊपर से कलम के तलबगार लोग स्तरहीन दल बदलुओं , जातिवाद मे मदांध और कुर्सी को लालायित लोगों से कलम की स्वतंत्रता का विमर्श करने लगें तो कलम की स्वतंत्रता कैसे निश्चित होगी ?
दौर चिंता का है , दौर चिंतन का है खैर वाणी और कलम की स्वतंत्रता आकाशवाणी जैसे स्वतंत्र हो ,ऐसी कामना है !