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By :- Saurabh Dwivedi

कविताओं को समझना नहीं महसूस करना मन की प्रकृति होनी चाहिए। समझने के लिए संसार में बहुत कुछ है। जैसे तमाम निर्जीव इमारतें समझी जा सकती हैं , जैसे देह समझने के लिए होती है। देह इमारत की तरह है जो खूबसूरत हो सकती है , कम खूबसूरत हो सकती है और बदसूरत भी होती है ! नजरों का ख्याल है , जिस नजर को कोई खूबसूरत दिख जाए और बदसूरत भी समझ आ जाए। तमाम घर देखने में अच्छे नहीं लगते , हैसियत के अनुसार घर और इमारत का ढांचा बना रहता है। आज भी कच्ची दीवारों के घर मिल जाएंगे जो मिट्टी से बने रहते हैं। वहीं संगमरमरी ईमारत भी देखने को खूब मिल जाती है। परंतु बात सुकून की है , वह सुकून जरूरी नहीं कि संगमरमरी इमारत में अस्तित्व रखता हो और सुकून मिट्टी की दीवारों के अंदर अस्तित्व रखता हो !

ऐसा ही है कविता का रचा जाना। सुकून के लिए रची जाती हैं कविताएं। जो मन और आत्मा से प्रस्फुटित होते शब्दों से बार – बार किसी नदी के निकलते हुए स्रोत की तरह होती हैं जो पूरी एक नदी बनकर आंखो के सामने प्रकट होती हैं। यदाकदा किसी झरने की भांति और किसी झील के मानिंद भी !

मैं एक औरत हूँ में प्रत्येक रचना को पढ़ते हुए यही महसूस होता है कि दर्द , खुशी और गम में , अकेलेपन में और अपनत्व के भाव से रची गई रचनाएं हैं। स्वयं से सवाल करती और जूझती रचनाएं हैं ! सवाल छोड़ जाती रचनाएं ! पूर्ण होने के लिए मछली की तरह तड़पती रचनाएं।

समाज की खूँखार नजरों की खूँखारी को स्पष्ट बयां करती हुई रचनाएं भी अपना वजूद औरत ही अदा से बयां करती हैं। एक लड़की से औरत होने की व्यथा को स्पष्ट महसूस कराती हुई रचनाएं हैं। वे समाज से बहुत कुछ कहती हैं कि मेरे अंदर की पीड़ा में खंजर तुम्हारी मानसिक कुप्रवृत्ति का है।

लेखिका द्वारा सधे हुए शब्दों में हिन्दी और उर्दू भाषा के शब्दों का उपयुक्त समायोजन किया गया है। जिनके माध्यम से प्रेम जैसे अहसास को दिलचस्प अंदाज में बयां कर दिया जाता है। लेखिका के संवेदनशील स्वभाव का अहसास हो जाता है , जब वो पार्क में टहलती औरतों की देह में पुरूषों की एक्सरे नजरों की भर्त्सना करती हैं परंतु निर्जीव वस्तुओं के मनोभाव को जीवटता प्रदान कर देती हैं।

बेनाम रिश्ते को नाम देना हो या फिर अदृश्य प्रेम की कल्पना को साकार करना हो , यह कमाल का शाब्दिक चमत्कार ” मैं एक औरत हूँ ” में अद्भुत अंदाज में पेश कर दिया जाता है।

गहन अंधकार में प्रकाश की महिमा को शब्दों से पिरोया गया है। कि एक स्त्री चारदीवारी के अंदर रहकर शब्दों से समाज का नग्न सच उजागर करने की अदम्य इच्छाशक्ति रखती है। उसकी क्रांति से गंदी नजरों का कत्ल सरेआम किया जा सकता है। वह परंतत्रता से स्वतंत्रता की बात करती है तो मानों सामाजिक आडंबर और दकियानूसी की बेड़ियां स्वयं ही छिन्न-भिन्न होती प्रतीत होती हैं।

मानो अहसास कराती है किताब कि एक औरत अपनी रचनाओं के माध्यम से पुष्प को प्रतीक मानकर सामाजिक शूल की भर्त्सना कर स्व की सुगंध को चिरकालिक बनाए रखती है। मैं एक औरत हूँ जिंदगी के समस्त आयाम पर असर छोड़ती हुई आकर्षक कवर पेज के साथ पूर्णता प्राप्त कर लेती है। जैसे एक औरत स्वयं को ढके रहती है वस्त्रों से वैसे ही अंदर के पृष्ठों और बिखरे शब्दों का वस्त्र है कवर पेज ( आवरण पृष्ठ ) !

अब स्वयं को परिभाषित करती है , ” मैं एक औरत हूँ ! ” वह इस प्रकार से परिभाषित करती है कि पढ़ने वाले समझते हैं या महसूस करते हैं। समझेंगे तो क्या समझेंगे और समझकर बयां करेंगे तो नजर और सोच का अंदाजा लगा लेगी , ” मैं एक औरत हूँ ! ”

महसूस करके पढ़ेंगे अथवा पढ़कर महसूस करेंगे , यह उस प्रकार से है कि एक पूर्ण श्वांस एक चक्र पूर्ण कर के पूर्ण होती है। वैसे ही होता है महसूस करके पढ़ना और पढ़कर महसूस करना , दोनो एक प्रक्रिया की तरह श्वांस बन जाने का अस्तित्व हैं। किताब एक सहज उत्पत्ति है , जैसे ” मैं एक औरत हूँ ” से मतलब है कि उत्पत्ति का सुख औरत ही महसूस करती है। इसलिये कह सकता हूँ कि कविता को महसूस करने के लिए कम से कम रत्ती भर ही सही स्त्रियोचित मन का अस्तित्व होना चाहिए। जो जिंदगी को महसूस करेंगे वो कविता को महसूस करेंगे।

कुछ इस प्रकार से यह किताब अपने आप में आंखो को सजल कर दे और हृदय को भिगो दे। आम पाठक पढ़कर पीड़ा और सुख के भाव से ओतप्रोत अवश्य होगें।

लेखिका पद्मा जी को बधाई….

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