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@Saurabh Dwivedi

(भाग – 1 ) गांव में पलायन व विकास की तस्वीर

ग्राम नोनार ब्लाक मुख्यालय पहाड़ी के समीप कागांव है। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र से इसकी दूरी कम से कम लगभग आठ से दस किलोमीटर है। जनपद मुख्यालय एवं जिला चिकित्सालय से इसकी दूरी कम से कम लगभग उन्नतीस किलोमीटर है। स्वास्थ्य सेवा और विकास के केन्द्र से इस दूरी के साथ बड़ी सच्चाई है कि गांव मे प्राथमिक उपचार की कोई सरकारी व्यवस्था नहीं नजर आती है। गांव की हकीकत अनेक भाग मे – अनेक तस्वीर से नजर आएगी , जहाँ युवाओं के पलायन की व्यथा है तो किसानों की अपनी अलग समस्याए हैं।

शिक्षा के संबंध में पेशे से शिक्षक सुशील पाण्डेय से मुलाकात हुई। राजनीतिक – सामाजिक संदर्भ में सुरेश तिवारी से बात हुई। गांव की जनसंख्या एवं अन्य आंकड़े के संदर्भ मे ग्राम प्रधान नरेन्द्र वर्मा से से चर्चा हुई। खेलकूद की प्रतिभा का भी पता राजन पाण्डेय से चला , इनके पुत्र प्रतिभावान क्रिकेटर हैं। गांव में प्रतिभाए हैं लेकिन इन प्रतिभाओं को निखारने – पहचानने के लिए जौहरी नहीं है , अपितु संसाधन भी उपलब्ध नहीं है।

आबादी एवं पलायन

गांव की कुल आबादी लगभग 5,000 होने की जानकारी मिली , जिसमें लगभग 2000 – 2100 मतदाता बताए गए। जिसमें 2500 युवा आबादी होने की मोटा – मोटी जानकारी मिली जो तनिक कम भी हो सकती है या इससे तनिक ज्यादा भी ! असल बात आबादी की नहीं पलायन की है। इस गांव की पलायन की अपनी कहानी है। बहुत से युवा कोरोना काल मे अभी भी महाराष्ट्र के पुणे मे हैं तो वहीं दर्जनों युवा वापस भी आ चुके हैं।

इस गांव से राजीव तिवारी ने कभी पलायन किया था। वो एक छोटी सी नौकरी कर रहे थे। उनकी अपनी संघर्ष की लंबी दास्तान है पर वह एक मिशाल भी हैं। एक व्यवसायी के ओहदे से उनकी आज अपनी अलग पहचान है। उन्होंने पुणे मे व्यवसायिक जमीन तैयार की। पलायन करने के बाद सफलता की विरली कहानियां ही मिलती हैं , जो एक दिन अमीर हो जाते हैं और फिर वहीं के बासिंदे हो जाते हैं। हालांकि उनका मोह गांव से लगातार बना रहता है और गांव में व्यवहारिकता बनी रहती है। राजीव तिवारी भी गांव आते रहते हैं और उनके अपने सामाजिक काम भी हैं , साईं धाम ट्रस्ट में एक निर्माणाधीन साईं मंदिर है और गोशाला है।

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राजीव तिवारी जैसे अनेक युवाओं ने पलायन किया। किन्तु सभी राजीव तिवारी नहीं हो सकते। ऐसे ही कुछ और दो – तीन गिनती के युवा हैं जिन्होंने अलग – अलग क्षेत्र में औसतन सफलता दर्ज की है। लेकिन बहुत से युवा दिहाड़ी मजदूर की तरह काम कर के गांव वापस आते हैं। इनमें प्रत्येक जाति – वर्ग और समूह के युवा आते हैं।

यहाँ तक कि कड़वी सच्चाई है कि सामान्य वर्ग के युवा पुणे जैसे महानगर में इमारतों मे पेंट करने का काम करते हैं। इन्होंने पुणे की अनगिनत इमारतों को चमकाया है तो वहीं कुछ एक युवा ठेका लेकर ठेकेदार भी कहला गए , पर सोच समृद्ध ना होने से ठेकेदारी एक दिन चौपट भी हो गई। एक कड़वी सच्चाई है कि गांव का लगभग 400 युवा पलायन का अनुभव रखता है , लेकिन इनसे कोई पलायन का संघर्ष पूंछने वाला नहीं है। पलायन का दर्द भी वही महसूस करेगा जिसने जिंदगी मे पलायन की हो , अपनी दहलीज – अपनी माँ के आंचल से दूर गया और कुछ रूपया कमाया होगा पर इसके पीछे का दर्द बड़ा दर्दनाक होता है !

किसानी एवं निजी कार्य

गांव के ज्यादातर परिवार सिर्फ किसानी पर निर्भर हैं। इनके अपने कुछ निजी कार्य हैं। लेकिन निजी कार्य की वैसी आमदनी नहीं कि उच्च जीवन स्तर जी सकें। किसानी के लिए साधन – संसाधन की वैसी प्रचुरता नहीं है जिससे आय दोगुनी होने की परिकल्पना साकार होती दिखे।

जब श्यामाचरण गुप्त सांसद बांदा हुए थे , तब दहाड़ कर बोल गए थे कि गांव में दो ट्यूब वेल लगेंगे परंतु राजनीति ट्यूब वेल निगल गई और फिर कभी ट्यूब वेल बनने की ना किसी ने घोषणा की और ना किसी ने योजना बनाई। इस तरह से बड़ी सच्चाई है कि आजादी के बाद से अब तक इस गांव का किसान सिंचाई के साधन से संपन्न नहीं है।

यदि किसान सिंचाई के साधन से संपन्न होता तो गांव के किसानो की तस्वीर बदहाली की नहीं अपितु समृद्धि की प्रस्तुत होती है। संभवतः युवा भी नई तकनीक की खेती करते और पलायन को मजबूर नहीं होते। यहाँ की समस्त खेती व्यक्तिगत बोरिंग एवं तालाब के भरोसे निर्भर है।

इस गांव की अनेकानेक समस्याएं हैं। इन समस्याओं को समाप्त करने के लिए दृढ इच्छाशक्ति की जरूरत है। सड़क बनने के साथ पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में काम होना चाहिए। गांव की मिट्टी का मृदा परीक्षण आवश्यक है। चूंकि इस गांव की मिट्टी मे नोना लगने की शिकायत है और इस वजह से ही गांव का नाम नोनार पड़ा था।

स्वच्छता – स्वस्थता

स्वच्छता के मामले मे अनुसूचित जाति व पिछड़ा वर्ग सहित गांव के एक बड़े भूभाग की तस्वीर अत्यंत दयनीय नजर आती है। सिर्फ एक ऐसा भूभाग सामान्य वर्ग की बस्ती का छोटा सा भाग है , जो औसतन अपनी भौगोलिक स्थिति की वजह से स्वच्छ नजर आता है। हालांकि इसमे प्रशासनिक असफलता के साथ सामाजिक असफलता की बड़ी भूमिका है। निवास करने वाली जनता यदि जागरूक हो जाए तो आम रास्ते में पशु बांधने का चलन खत्म हो जाए और घर का कचरा सड़क पर ना फेककर सीधे डस्टबिन मे जाए। गांव के अंदर गोबर , चूल्हे की राख व अन्य कचरा फेंकने के लिए कचरा पेटी की तरह कोई एक विशेष स्थान पर गोबर टैंक बनाने की जरूरत है , जिसे बाद मे किसान खाद के रूप मे खेत तक ले जा सकें। गर्मी के दिनों मे तात्कालिक स्वच्छता शायद नजर भी आ जाए परंतु बारिश के दिनों में चलना मुहाल हो जाता है और सांसो के जरिए गोबर आदि की गंध सीने मे समाने लगती है। इसलिए स्वस्थ गांव के लिए स्वच्छता पर विशेष ध्यान देना होगा , इसके लिए जनता भी स्वयं को तैयार करे और एक स्वच्छ – स्वस्थ गांव बनाने का संकल्प ले। गांव के युवा अपने गांव को स्मार्ट गांव बनाने के लिए सामूहिक पहल कर सकते हैं।

अनुसूचित बस्ती के पास नाले की बुरी स्थिति

कोशिश होनी चाहिए कि गांव में रोजगार के साधन स्रोत तैयार किए जाएं , इसको लेकर गांव पर चर्चा की चौपाल में मंथन होना चाहिए।

क्रमशः ( इक्कीसवीं सदी में गांव क्या चाहता है ? )

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karwi Chitrakoot )

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