पूजा – पाठ करते समय दुनियाभर के काम याद आएंगे। कुछ नही तो उबासी आने लगेगी और मन मे जितनी तेज गति से विचार आ सकते हैं वह आएंगे। दुनियाभर मे सबसे तेज गति से चलने वाले विमान से तेज गति मे मन मे चिंताएं सताने लगेंगी।
कल क्या करेंगे ? ऐसा कुछ होने लगेगा। मतलब कुछ समय के लिए मन स्थिर नही रह पाता। इतने अस्थिर हो चुके हैं कि बैठे भगवान के पास हैं किन्तु उठ खड़े हो रहे हैं कि कुछ करना है।
ऐसा ही प्रसंग सुना रहे थे महराज बदरी प्रपन्नाचार्य श्रीमद्भागवत कथा मे उनकी सरस वाणी से दिव्य प्रवचन सुनने को मिलते हैं कि आम आदमी पूजा कैसे करे ?
पूजा करने मे मन कैसे लगे ? यह भी एक अभ्यास है। पूजा करना भी एक तपस्या है। स्थिर होकर भगवान के पास रह सकें। उन पर ही मन लगा रहे।
चिंतित स्वामी विवेकानन्द ने माँ काली से यही मांगा था कि मेरा मन भक्ति मे लगे , साधना मे लगे और शांति चित्त रहे। चित्त मे चिंता ना आए और चिंतन जन कल्याण का हो विश्व का हो।
गीता मे कहा गया है कि शुष्क चिंतन बेकार होता है। उससे किसी का कल्याण नही होता किन्तु चिंतन मे रस हो तो वह जन कल्याण के लिए अमृत हो जाता है। भगवान का रस हो चिंतन मे उससे सामान्य जन को जीवन की राह मिल जाती है।
इसलिए आपका जो जीवन है वो शुष्क ना हो , भक्ति रस का जीवन सदैव श्रेष्ठ रहा है। धर्म अध्यात्म रस का जीवन आपका कल्याण करेगा। अपने जीवन के अंतिम कल्याणकारी रस को समय रहते महसूस करिए और फिर उस अनुसार भौतिक जीवन मे संतुलन स्थापित करें , फिर पूजा – पाठ और प्रार्थना मे ब्रह्माण्ड की दिव्य तरंग महसूस हो सकेंगी , मन लगेगा और धर्म अध्यात्म का जीवन सत्कर्म का जीवन होगा। यही जीवन पथ है कि हम सत्कर्म करें। सामान्य जीवन से श्रेष्ठ जीवन की ओर की प्रथम सीढी है पूजा – पाठ।