@Saurabh Dwivedi
आइए आज हम आपको कहानी सुनाते हैं। ये गाय की कहानी है। सरकार की कृपा से गांव मे गाय की जिंदगी और मौत की कहानी जीवंत हो उठी है। हम आपको ज्यादा दूर नहीं ले चलेंगे जनपद चित्रकूट के एक गांव ही ले चलते हैं। ऐसे ही गांव हैं और हर जगह गाय की हकीकत से सामना हो जाएगा फिर पता लगेगा कि कितने बड़े गोभक्त हैं और सरकारी सेवा कर मेवा खा रहे हैं या खिला रहे हैं।
हमें विश्वसनीय सूत्रों से जानकारी मिली कि एक संवेदनशील किस्म का प्रधान गाय को भूख प्यास की तड़प और ठंड की ठिठुरन से बचा लेना चाहता था। हुआ ये था कि गोशाला का सोलर पंप खराब हो गया। जो गुजरात से पहले रिपेयर ही नहीं हो पाता अब पंप चला गया गुजरात बनने फिर गाय को पानी कैसे मिले ?
जानकारी के मुताबिक प्रधान जी खेत – खेत टहल रहे थे कि कहीं किसी ट्यूबवेल से पानी मिल जाए या वो नया कनेक्शन करा लें। बिजली वाला समरसेबुल लेकर गाय को पानी का प्रबंध कर दिया जाए। अब प्रधान जी को अनुनय विनय अधिकारियों से करनी थी। उन्होंन जब उच्च स्तरीय अधिकारियों को अवगत कराया तो उनकी ओर से साफ मनाही कर दी गई , ऐसा हो ही नहीं सकता।
गुजरात से बनकर जाने कब आएगा पंप ? तब तक तो गाय प्यास से तड़प कर मर जाएंगी ? लेकिन साहब लोग अपनी प्यास के सिवाय गाय की प्यास कैसे फील होगी ? उनको तो बजट की फीलिंग्स रहती हैं।
अरे बजट है कि नहीं है ? बजट है भी तो कितना बजट डकारा जा सकता है ? कितना लगाया जा सकता है ? वगैरा वगैरा ……..
खैर इन सब चक्कर मे गाय की प्यास नहीं बुझनी। सरकारी अधिकारियों के पास तत्काल प्यास बुझाने की व्यवस्था करने का कोई बजट नहीं है अथवा इस माया महाठगनी को अफसरों की महामाया ही जाने।
जैसे हर विभाग मे बाबू होते हैं। छोटे बाबू – बड़े बाबू और बड़े बाबू का रूतबा इतना बड़ा होता कि सूटबूट वाले बाबू होते हैं जूतों की थाप से गाय की धड़कन बंद हो सकती है। जब बड़े बाबू कह दें नहीं तो नहीं और बड़े बाबू कह दें यस तो यस आखिर बड़े बाबू को पूजोगे तो ही कृपा मिलेगी अर्थात फिर रजिस्टर वगैरा वगैरा सब तैयार हो जाता है। बिन बाबू कृपा कुछ ना होई…..
इन सब चक्करों मे ही तो प्रधान जी परेशान हो जाते हैं। चक्कर जांच का आ जाता है। अगर प्रधान जी ज्यादा गाय के हित का सोचेंगे तो अधिकारी बाबू कहेंगे ज्यादा नेतागिरी करोगे तो जांच करा दूंगा ? अब इन अधिकारियों की जांच कौन करेगा ? और जब अधिकारी की जांच इनका रिश्तेदार अधिकारी ही करेगा तब हरहाल मे एक – दूसरे को वैसे ही बचा लेते हैं जैसे चोर – चोर मौसेरे भाई।
अब यही गाय गांव और प्रधान के लिए समस्या बन रही है। प्रधान अगर गाय की आवाज देता है तो जांच से विकास कार्य रूकेंगे या फिर गोशाला मे गाय मरेगी , यह इस समय की सबसे बड़ी हकीकत है।
हमें एक गांव के विश्वसनीय सूत्रों से जो जानकारी मिली उस कहानी मे प्रधान गाय की प्यास बुझाने मे कामयाब रहे। वह पास के ट्यूबवेल से पानी लेकर आए। किन्तु सवाल है कि गोशाला मे बिजली का कनेक्शन नहीं हो सकता ? इसका कोई नियम नहीं है तो इस तरह गाय हमेशा सोलर पंप के भरोसे रहे या फिर जुगाड़ से ही गाय की प्यास बुझेगी ?
फिलहाल गोशालाओं मे अव्यवस्थाओं का जीता – जागता किस्सा लगभग हर जगह मिल जाएगा। किन्तु रजिस्टर मे गाय तंदुरुस्त है और टैग वाली गाय फलफूल रही हैं। भूसा का धन आवंटन भी खूब हो रहा है लेकिन बाबू कृपा से होगा सोचिए बाबू कृपा भगवान कृपा से भी कितनी बड़ी कृपा होगी। असल मे बड़े अफसर भी बाबू कृपा से ही अफसरी करते हैं और सचिव साहब के कहने क्या ? लखनऊ के सचिव गांव के सचिव के रूतबे के सामने फेल हो जाएंगे।
यह साफ हो रहा है कि सरकार के साढ़े चार साल बीतने के बाद भी गाय के बजट का कोई पारदर्शी तरीका नहीं है और गोशालाओं के चलते प्रधान लाचार हुए हैं अधिकारियों की मनमानी बढ़ी है वह गाय के नाम पर प्रधानों को ब्लैकमेल कर लेते हैं कि जांच करा दूंगा ? अब समझिए कि इनकी जांच मे कितने झोल हैं। वक्त अब है नहीं कि शासन गांव मे गाय की पारदर्शी रूप से व्यवस्था दुरूस्त कर दे और प्रधानों को स्वतंत्र कर दे अन्यथा अफसरशाही का जिन्न विकास को निगल जाएगा।
एक स्वस्थ लोकतंत्र मे स्वस्थ जनप्रतिनिधि होना चाहिए जबकि यहाँ प्रधानों पर अफसर बाबू जांच की धौंस जताकर उनके जनप्रतिनिध होने को धिक्कारते हैं। जबकि जनप्रतिनिधि का स्तर इन अफसर बाबुओं से उच्च होता है। सत्य यह भी है कि अपवाद स्वरूप कुछ गांव मे तात्कालिक व्यवस्था अच्छी मिल जाएगी परंतु यह किस्सा हर ब्लाक का है हर गांव का है , असल महामारी तो गाय के जीवन मे आई है।