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@Saurabh Dwivedi

सुबह – सुबह मन को प्रेरणा प्राप्त हुई ! क्यों ना इस गेट के संबंध मे लिख दिया जाए। मनुष्य का संकट मोचक के गेट को तोड़ने की गाथा लिख दी जाए। इस गेट को लगभग 20 वर्ष पूर्व मेरे पिताजी ने बनवाया था। उन्होंने गेट पर अपना नाम नहीं लिखवाया जबकि एक मूर्ति स्थापित करने के बाद कुछ लोगों ने अपने नाम का शिलालेख जड़वा दिया था !

अब इस गेट को एक ट्रक ने तोड़ दिया। लगभग तीन से चार महीने पूर्व मध्य रात्रि को ट्रक ने गेट तोड़ दिया। इस वक्त अमूमन सभी सो रहे थे , पर आसपास के कुछ लोगों ने देखा और गाड़ी नंबर UP 70 ET 5100 बताया। सुबह यह पता चला कि ट्रक मनोज रलिहा का है।

वर्तमान थानाध्यक्ष सुशील चंद्र शर्मा से पूर्व जो थानाध्यक्ष थे। उनके सामने बुलवाकर गेट बनवाने की अवधि तय हुई। एक हफ्ते के बाद भी मनोज रलिहा गेट पर काम नहीं लगवा सके। फिर जब भी काॅल करो तो कल से काम शुरू करवाता हूँ , अरे अगले हफ्ते शुरू हो जाएगा। फिर कहने लगे कि एक कारीगर को 10,000₹ दे दिया है। शीघ्र ही काम शुरू हो जाएगा।

यह सब कहते – सुनते महीनों बीत गए। इसके बाद जनता कर्फ्यू और फिर लाकडाउन लग गया। किन्तु पहाड़ी बुजुर्ग के प्रमुख लोग कहते रहे कि आप नेतृत्व करिए और जहाँ कहेंगे वहाँ चलेंगे ! जिन्हें नांदी के हनुमानजी से प्रेम है , उन पर आस्था है। वह सभी कुछ भी करने को तैयार थे।

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हमें पता था कि रातों-रात जेसीबी बुलवाई गई और ट्रक निकाल दिया गया। इस तरह से ट्रक रातों – रात वापस चला गया। जब सुबह हमें सूचना मिली थी तब थाना परिसर मे जाने पर एकाध ना – नुकुर के बाद मनोज रलिहा को थाना बुलाया गया था।

जब आपसी सामाजिक – धार्मिक समझौता हुआ तब एफआईआर नहीं दर्ज कराई गई। किन्तु मनुष्य संकटमोचक के साथ भी वादा खिलाफी कर सकता है , ऐसा युग आ गया है।

यहीं से दंगे की थ्योरी भी समझी जा सकती है। जैसे कि दर्जनों युवा साथ चलने को तैयार थे। आंदोलन करने को तैयार थे। वैसे मे सिर्फ इशारा करना था और नेतृत्व करना था , फिर एक धार्मिक आंदोलन सड़क पर खड़ा हो जाता था , कुछ घंटे के लिए सही। परंतु ऐसा होना तय हो गया था।

लेकिन मैं समय का इंतजार कर रहा था या फिर एक बात सोच ली थी कि किसी भी मद से अथवा सामाजिक चंदा करके गेट बनवाया जाएगा , चूंकि अब पहले जैसा समय पिताजी का रहा नहीं कि वह ऐसा गेट अभी बनवा सकें। ऐसा समय मेरा भी नहीं कि एक गेट का निर्माण कराया जा सके। किन्तु यह हनुमान गेट बजरंग चौराहा पहाड़ी की खूबसूरती बढ़ाता है और देखकर आत्मबल प्राप्त होता है , ऊर्जा मिलती है।

इसमे कोई शक नहीं कि पुलिस का ढीला रवैया भी गेट ना बनने का प्रमुख कारण है। यह भी सत्य है कि इस गेट से राज्य और राष्ट्र स्तरीय राजनीति सधती नहीं इसलिए भगवान् राम के सिद्ध भक्त  पौराणिक नांदी के हनुमानजी के टूटे गेट पर बड़े – बड़े धार्मिक – सामाजिक और राजनीतिक जिम्मेदारों की नजरें पड़कर भी नहीं देख सकीं अर्थात आदमी सिर्फ वही अंधा नहीं जिसकी आंखे नहीं हैं बल्कि वह आदमी अंधा है , जिसकी आंखे तो हैं पर आत्मा मर चुकी है।

अभी किसी की राजनीति सधती हो तो इस संबंध में डपोर शंख जैसी आवाजें चीख – चिल्लाहट मचाने लगेंगी। किन्तु तोड़ने वाले ट्रक मालिक से लेकर किसी की भी आत्मा इस टूटे गेट को देखकर कांपती नहीं है !

ये समाज की , राजनीति की और धर्म के ठेकेदारों की सच्चाई है। चूंकि हमें धर्म आदि के नाम पर दबंगई नहीं करनी थी तो एक आदमी के प्रत्येक वादे की प्रतीक्षा करते रहे , पर आजकल सोचकर हतप्रभ हूँ कि सिद्धपीठ नांदी के हनुमानजी का गेट तोड़ने के बाद पुनः ना बनवाकर उस आदमी की आत्मा कैसे सुखी रह रही होगी ?

इस संबंध मे पुलिस चाहती तो फौरन खड़े – खड़े गेट बनवा सकती थी परंतु ऐसा नहीं हुआ। और हम कितना दबाव बनाते ? मन मे यही आया था कि कभी समय आने पर कोशिश की जाएगी कि स्वयं बनवा लिया जाए।

शुरूआत से लिखा भी इसलिए नहीं था कि सामाजिक कोलाहल के सिवाय होगा भी क्या ? जब आदमी की आत्मा मर गई हो तो वह संकटमोचक को भी ठेंगा दिखा सकता है। चूंकि वह आदमी बहुत अमीर है। जब आदमी अमीर होता है तब किसी की नहीं सुनता , किसी को नहीं मानता और ऐसे लोगों के लिए ईश्वर का अस्तित्व भी नगण्य हो जाता है। अक्सर सुना जाता है कि ईश्वर कहाँ है ? ईश्वर नहीं है !

अब विचारणीय है कि जनपद प्रशासन इस गेट को बनवाने की पहल करता है अथवा यह गेट सामाजिक सहयोग से बनेगा परंतु मेरे हृदय की तरंगे आभास कराती हैं कि गेट शीघ्र बनना चाहिए , जिससे हनुमानजी का श्रृंगार पुनः हो जाएगा और बजरंग चौराहा की खूबसूरती पुनः जगमगा उठेगी , हम भी आते-जाते मानसिक प्रणाम कर सुख और ऊर्जा महसूस करने लगेंगे।

गेट बनना अवश्य चाहिए परंतु पूरा कथानक पढ़कर महसूस करिए अपने संसार की हकीकत क्या है ? इसलिए प्रकृति दंड देती है तो फिर ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल क्यों ? 
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