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By :- sujata mishra

यह भी एक दुर्भाग्य है कि अधिकांश हिन्दू स्वयं अपने ही धर्मग्रंथों – नीतिग्रन्थों से परिचित नहीं हैं, नतीजा यह है कि “गीता” ,”पुराण” या चाणक्य के नाम पर यहाँ कुछ भी चेप दो , ठेल दो , पेल दो वाला खेल चलता रहता है।अधिकांश भारतीय “गीता” को उतना ही जानते हैं – समझते हैं जितना वो मंदिर की दीवारों में चिपके चलताऊँ उपदेशों या स्टीकर्स में पढ़ते हैं! चाणक्य तो इस पीढ़ी के लिए “संता – बंता” बन गए हैं, कुछ भी कह डालों चाणक्य नीति बनाकर! मेरे एक सहकर्मी ने कॉलेज पत्रिका के लिए लेख दिया,और अपने लेख को गम्भीर बनाने के लिए कई बार भगवत गीता का “चलताऊँ स्टीकर छाप” उदाहरण चिपका दिया , सम्पादन क्योंकि मैं कर रही थी,अतः मैंने उनसे पूछ डाला कि गीता के किस अध्याय में यह लिखा है, आप बता सकते हैं क्या?वो झेंप गए, फिर नज़रे चुरा के निकल लिए, इस बार मैंने जोर देकर पूछा कि आपने गीता पढ़ी है या यह उदाहरण किसी मंदिर या दुकान में चिपके स्टीकर से लिये है? वो झेंपते हुए बोले “मैंने नहीं पढ़ी गीता, पर ऐसा सब कहते हैं कि उसमें यह लिखा है”। इस बार मैं हँस पड़ी, और कह भी क्या सकती थी! व्हाट्सएप से लेकर, फेसबुक,ट्विटर,मंदिर,दुकान,चौराहों यहाँ तक कि किताबों की दुकानों पर भी ऐसा बहुत कुछ मिलता है गीता, पुराण,या चाणक्य के नाम पर जो हिन्दू समाज में फैले “बौद्धिक भ्रष्टाचार” को उजागर करता है।कहते हैं लोगों के लिए बुरी बातों, नकारात्मक बातों पर विश्वास करना ज्यादा सहज होता है, जबकि अच्छी बातों या सकारात्मक विचारों पर यकीन करना ज़रा मुश्किल होता है।इसी तर्ज पर यह धंधा चलता है।

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