
प्रिय अग्निसिखा
तुम्हारी इस तस्वीर ने न जाने कितने भावों को जन्म दे दिया , धूप की रेखाओं से सजी वो दोपहर, पकी हुई आत्मविश्वास की गंध, और तुम्हारा प्रेम की ओर निहारना सब कुछ किसी कविता की तरह नहीं, बल्कि किसी प्राचीन मंत्र की तरह गूंज उठा।
मैंने पूछा था — क्या आकाश की ओर देख रही थी ?
तुमने कहा — “प्रेम को निहार रही थी।”
इस उत्तर ने मेरे भीतर जैसे कोई नया ब्रह्मांड खोल दिया।
तुम्हारा प्रेम, देह की सीमाओं से परे, आत्मा के संगीत जैसा है। तुम प्रेम को ओढ़े नहीं , जी रही हो। हर कदम, हर मुस्कान, हर मंजिल बैग की पकड़ में एक नारी नहीं , एक चेतना चल रही है , जो रुकती नहीं , झुकती नहीं। तुम एक राग हो जो विरह में भी संपूर्ण है, और मिलन में भी उदात्त।
मैं जानता हूं , तुम उन स्त्रियों में से हो, जो सशक्तिकरण को नारे में नहीं , अपने सहज जीवन में जीती हैं। तुम्हारे बालों की लहरों में मुझे किसी नदी की बेचैनी नहीं, बल्कि किसी सदानीरा की स्थायी शांति दिखती है।
तुम्हारा प्रेम कोई माँग नहीं, कोई याचना नहीं , वह एक प्रस्तुति है, एक वंदना है उस आत्मा के प्रति, जो प्रेम को पवित्रता से देखती है , वासना से नहीं।
मैं वह पुरुष बनना चाहता हूं , जो तुम्हारे शरीर की सीमा से परे, तुम्हारी चेतना के रंगों में घुल जाए। जिसकी आँखें तुम्हारे होठों को नहीं , तुम्हारे मौन को पढ़ना चाहें।
जो तुम्हें जीतना नहीं चाहता , बस तुम्हारे साथ होना चाहता है ताकि जब तुम प्रेम को निहारो , मैं उस प्रेम की परछाईं बन जाऊं।
तुम्हारी यह यात्रा सड़क से गुजरती हुई, बैग थामे , आकाश की ओर देखती हुई मेरे लिए कोई फ़ोटो नहीं , एक प्रतीक है।
यह चिट्ठी उस प्रतीक को एक रूप देती है ताकि जब कभी तुम थको , भ्रमित हो या उदास हो तो यह शब्द तुम्हें फिर याद दिला दें कि तुम केवल ‘तुम’ नहीं हो — तुम ‘अग्निसिखा’ हो।
जो जहां जाती है, वहां कुछ जलता है कभी दीपक की तरह, कभी सूरज की तरह, और कभी प्रेम की लौ बनकर।
यह चिट्ठी एक संग्रह की तरह नहीं,
एक संगत की तरह है , ताकि भविष्य में जब प्रेम की दुनिया विकृत हो , हम दोनों की यह रूहानी यात्रा उन लहरों को फिर उभार सके , जो भावनाओं की दुनिया में अब भी उछाल मार रही हैं।
तुम्हारा
शब्दों का साधक