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By – Saurabh chaturvedi

सन सत्तानबे या अट्ठानबे का समय था..आठ नौ साल मेरी उम्र थी और कक्षा चार या पांच में मैं पढ़ता था…घर का सबसे बड़ा लड़का था तो घर के सभी संसाधनों, स्नेह, प्रेम और सबके दिलों पर मेरा ही शासन चलता था.

जिंदगी हँसी खुशी अमर चित्र कथा, रंगोली और चित्रहार की तरह मजे में चल रही थी..तभी एक दिन मेरे एक दूर के रिश्तेदार मेरे घर आए औऱ उन्होंने अपने क्षेत्र में शिक्षा, स्वास्थ्य की सही व्यवस्था न होने के कारण अपने बेटे भोलू के मेरे यहाँ रहकर पढ़ने का प्रस्ताव रखा….मेरे बाबा उस समय जीवित थे और उन्होंने ध्वनि मत से भोलू के मेरे यहाँ रहने का प्रस्ताव पास करा दिया..मेरे घर के अन्य लोग जैसे पिताजी या चाचा लोग अपनी अपनी सहमति असहमति के बावजूद इस निर्णय के साथ खड़े रहे क्योंकि वो निर्णय तत्कालीन व्यवस्था के सबसे ताकतवर व्यक्ति द्वारा लिया गया था.

मुझे इसकी जानकारी तब हुई जब भोलू अपना बोरिया बिस्तर लेकर मेरे यहाँ सहमे हुए कदमों से विद्यमान हो गए…सब कह रहे थे कि कितना मासूम बच्चा है, कितना झिझक रहा है, घर में इससे सबका मन लगा रहेगा.. और न जाने क्यों उसीदिन से मेरी मिल्कियत मुझे दरकती हुई महसूस होने लगी…बाबा ने आदेश जारी किया कि आजसे भोलू मेरी ही खटिया पर सोएंगे..उनदिनों बच्चों का कमरा नहीं होता था बस खटिया ही होती थी…

भोलू मुझसे उम्र में बड़े थे और कक्षा नौ में पढ़ते थे…भोलू ने मेरे यहाँ रहना शुरू किया और धीरे धीरे ये महसूस करने लगे कि यहाँ उन्हें कुछ विशेष सहूलियतें मिल रही थीं..जैसे वो सबेरे देर से उठते थे तो भी उन्हें कोई नहीं बोलता था और वहीं हम भाई बहन पांच बजे से देर करने का साहस भी नहीं कर पाते थे क्योंकि हमें पीटने वाले बहुत थे…भोलू थाली में खाना आसानी से छोड़ देते थे….कभी कभी तो बिना नहाए ही भोजन पा जाते थे…मेरी साइकिल पर भी उनका पहला अधिकार हो गया था..

समय के साथ भोलू के अधिकार बढ़ते रहे..जैसे सब्जी लाने या आटा पिसवाने के लिए भी पैसा उन्हें मिलने लगा…भोलू ने इन दो सुविधाओं का सर्वाधिक दुरूपयोग किया…मूली यदि डेढ़ रुपए मिलती थी तो वो दो रुपए बताते थे.. भिंडी तीन रुपए मिलेगी तो वो साढ़े तीन बताएंगे..आटा पिसवाने की पिसाई अपने पास रखकर पिसाई में आटा ही दे देते थे और इस तरह से बचाए हुए पैसों से समोसे और गोलगप्पे खाते थे….साइकिल से स्कूल जाते समय मुझे बीच में ही उतारकर भाग जाते थे और मैं पैदल स्कूल जाता था….अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भोलू कहीं भी गैस छोड़ सकते थे….भोलू जानबूझकर मुझे परेशान करने के लिए सोते समय हवा बहुत छोड़ते थे.

मैंने परेशान होकर इसकी शिकायत अपने चाचा से की ,चाचा तत्कालीन व्यवस्था में घर के मानव संसाधन मंत्री थे। लेकिन, चाचा ने अपने ऊपर मेरे पिताजी और बाबा के भय से इस विवादास्पद मामले में कोई रुचि नहीं ली , मैं भोलू के बढ़ते उत्पातों की शिकायत लेकर सबके पास गया लेकिन कोई सहायता नहीं मिली.

अंत में साहस करके मैं बाबा के पास गया..उस समय रात के पौने नौ बज रहे थे और बाबा रेडियो पर समाचार सुन रहे थे..मैंने इंतजार किया और फिर अपनी बात कही…मुझे लगा कि बाबा कुछ सोंच रहे थे लेकिन, बोले कुछ नहीं..मुझे भोलू के बढ़ते अनाधिकृत उत्पातों से ज्यादा दुःखी बाबा जैसे सक्षम व्यक्ति की ये चुप्पी कर गई…

असल में मुख्य समस्या यही थी. भोलू भलीप्रकार से ये समझ गए थे कि मेरे घर में वो अल्पसंख्यक हैं…कोई अधिकार न होने के बावजूद सारे संसाधन और सुविधाएं पहले उन्हें ही मुहैया कराए जाएंगे….लाभ का कोई भी पद परम अयोग्य होने के बाद भी उन्हें ही दिया जाएगा.

उनके निर्विघ्न रहने के लिए संसाधनों के वास्तविक अधिकारी यानी कि मुझे मानसिक रूप से निराश होना बहुत जरूरी भी था ताकि भविष्य में कोई प्रतिरोध ही न उत्पन्न हो..इसीलिए मेरे मानसिक, शारीरिक शोषण के रोज नए उपाय भोलू किया करते थे..भोलू के आगे मेरे घर की विधायिका, न्यायपालिका, प्रशासन, गृह एवं रक्षा विभाग, यहां तक कि सर्वोच्च पदासीन मेरे बाबा भी बेबस थे..इसका कारण ये कि भोलू मेरे रिश्तेदारों और गांव के लोगों के समक्ष मेरे परिवार की सहिष्णुता, उच्च आदर्शों, अद्भुत शरणागत वात्सल्य और महान संस्कारों के पर्याय बन चुके थे..और इसीलिए उनकी सारी अति नापसन्द होने के बाद भी स्वीकार की जाती थी..और, यदि मेरे जैसे किसी ने कभी प्रतिकार किया तो उसे या तो दबा दिया जाता था या कभी कभी जले पर थोड़ा थोड़ा मरहम भी लगा दिया जाता था…

जैसे भोलू के जहरीली हवा छोड़ने की मेरी शिकायत पर हम दोनों को ओढ़ने के लिए अलग अलग चादरें दे दी गई थी। इसके पीछे का तर्क था कि अब यदि भोलू वायु प्रवाह करेंगे तो उससे उन्हें ही नुकसान होगा..लेकिन, ये चादर देने वाले भूल चुके थे कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भोलू का मन इतना बढ़ चुका है कि अब वो अपनी चादर उठाकर मेरी चादर में अपनी तोप घुसाकर फायर करने में भी तनिक भी नहीं डरेंगे..और मेरी पीड़ा बनी रही…

एकदिन घर के सामने टोले के सारे बच्चे गोली (कंचे) खेल रहे थे.. मैं भी था और भोलू भी थे…मैं गोली बहुत अच्छी खेलता था…भोलू की दो सुंदर गोलियां दूर से ही निशाना लगाकर जीत गया….मैंने भोलू से कंचे मांगे..भोलू ने नहीं दिया और मेरी भी सारी गोलियां छीन ली..मैं रोने लगा तो भोलू ने मुझे धक्का देकर गिरा दिया..मैंने कहा कि मैं बाबा से शिकायत करूँगा…भोलू ने कहा..”तुम्हारे बाबा की ऐसी की तैसी, उनमें मेरा कुछ भी उखाड़ने की कोई हिम्मत नहीं..”

ये वाक्य भोलू के लिए सामान्य था लेकिन मेरे परिवार की व्यवस्था के लिए गाली था…इस एक वाक्य ने मेरे परिवार की लाचारी को मेरे सामने परोस दिया…कितनी सरलता से एक घोर अयोग्य किन्तु मेरे घर की सहिष्णुता से बने मनबढ़ ने पूरे प्रशासन को ही बेबस बना दिया…कृपा को विवशता समझने लगा..ये मेरे लिए अब असह्य था.

मुझे सिस्टम से कोई आशा नहीं थी क्योंकि मैंने सारे दरवाजे खटखटा लिए थे और उन्हें तुष्टिकरण के चक्कर में न्याय करने में उन्हें अक्षम पाया था..किंतु, मेरा आक्रोश भी चरम पर था.. भोलू की मुस्कुराहट और उसके हाथ में मेरे जीते हुए कंचे मुझे धिक्कार रहे थे…और फिर मैं नहीं जानता कि कैसे मेरे हाथ में डंडा आया और मैंने एक भरपूर प्रहार भोलू पर किया..भोलू गिर पड़ा और चिल्लाया कि वो घर की माइनॉरिटी है तो मेजोरिटी उसपर अत्याचार कर रही है…ये बात सरकार यानी मेरे बाबा तक पहुंचती तो मेरा पिटना तय था इसीलिए अब मैं रुका नहीं और भोलू को डंडे से, लात से झापड़ से तबतक मारा जबतक कि भोलू आहि आहि करके पस्त नहीं हो गए…

इस एक घटना का प्रभाव ये हुआ कि हर तरफ ये बात फैलने लगी कि अब हम असहिष्णु हो गए हैं…यदि भोलू गलत थे तो उन्हें दंड देने का अधिकार न्यायपालिका को था..यहाँ लोग अब कानून हाथ में लेने लगे हैं…कई कई दिनों तक अलग अलग जगहों पर इसपर बहस होती रही..एक रिश्तेदार तो बकायदे राजनीति करते हुए भोलू के लिए राहत पैकेज की घोषणा कर अपने यहां रहने के लिए एक पूरा कमरा तक दे बैठे….

आज इतने साल बीत गए..पूरा देश मुझे अपने उस समय के घर जैसा लगने लगा है….कानून यहां भी हाथ मे लिया जाने लगा है..असहिष्णुता यहाँ भी बढ़ने लगी है…मॉब लिंचिंग अचानक से बढ़ गई है…सच में बहुत गलत हो रहा है..हिंसा का समर्थन किसी भी स्तर पर नहीं किया जा सकता लेकिन, अब ये सोचना जरूरी हो गया है कि अचानक से ये भावना कैसे बढ़ने लगी..इसका प्रायोजक कौन है??

मैं तो बस इतना ही समझ पाया हूँ कि ये असहिष्णुता नहीं बल्कि व्यवस्था, न्यायपालिका और विधायिका की असफलता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इसी देश के साथ किए जाने वाले अत्याचार के प्रति त्वरित न्याय की जनमानस की उग्रता मात्र है…

अब ये हिंसा कैसे शीघ्र रुके, यह ईश्वर ही तय करे….

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