By :- Saurabh Dwivedi
माऊथ आॅर्गन का बड़ा संदेश सबके भीतर का सांता क्लाॅज़ जिंदा रहे। सांता सिर्फ कोई विशेष धर्म का द्योतक नहीं बल्कि उपहार देने वाला सांता !
जो हर किसी के अंदर है। मेरे अंदर भी और आपके अंदर भी है जो भी इंसान है सभी के अंदर एक सांता रहता है।
सांता अर्थात उपहार की संस्कृति। उपहार इंसानों को खुशी प्रदान करते हैं। यह खुशी अगर देखनी हो तो किसी बच्चे में देखना खुशी की झलक।
छोटे बच्चों को जब हम उपहार सौंपते तो उनके चेहरे खिल जाते हैं। ऐसा ही कोई बच्चा हमारे अंदर उम्र के किसी भी पड़ाव में सुप्त अवस्था में रहता है।
वह बच्चा जागता भी है। जब उसे उपहार मिलता है। अचानक कोई खुशखबरी मिलती है। कोई प्रेम से स्पर्श करने वाला मिल जाता है।
कोई ऐसा मिल जाता है जो संकट के समय हाथ थामकर बड़ा सहारा बन जाता है। हमें संकट से उबार देता है। बदले में सुख स्वरूप उपहार मिलता है।
ऐसे ही कोई ना कोई उपहार अगर हम जीवन भर अपनों को देते – लेते रहें तो यह छोट – छोटे उपहार हमारी जिंदगी को खुश कर देते हैं।
बात बहुत बड़ी नहीं है। बचपन में स्कूल के दिनों में हम ग्रीटिंग कार्ड खरीदते थे। अपने सहपाठियों को नया साल मुबारक कहने के लिए।
हैप्पी न्यू इयर बोलते थे। कागज का सुंदर ग्रीटिंग कार्ड देकर। अब ग्रीटिंग कार्ड से सजी हुई दुकाने नहीं दिखतीं , पहले नया वर्ष की दस्तक महसूस होते ही बहुत सी दुकानें उत्सव में तब्दील हो जाती थीं।
शुभकामना संदेश लिखे हुए रंग – बिरंगे ग्रीटिंग कार्ड जैसे कोई बाग दुकान में बागबान हो गया हो।
वहाँ से ग्रीटिंग कार्ड स्कूल पहुंचते थे। हमारे साथी बहुत खुश होते थे। मुझे भी कोई ग्रीटिंग कार्ड देता तो उत्सुकता से खोलता और पढ़ता फिर अपार सुख महसूस करता।
सच है कि बढ़ती उम्र के साथ ऐसी कुछ खुशियां पीछे छूटती गईं। उपहार लेने – देने की परंपरा लुप्त होती गई। अपितु धार्मिक कट्टरता की नजर उतारकर देंखे – सोंचे और महसूस करें तो सांता उपहार देने का आज भी उदाहरण प्रस्तुत करता है।
उपहार के सदृश्य संसार के सुख का रहस्य बतलाता है। कैसे जिंदगियों में हमारे अंदर का सांता खुशियां भर सकता है। हमारे दुख – दर्द की बड़ी काट हमारे आसपास ही है। दुनिया में जो अच्छा है उसे अपना लेना चाहिए। कोशिश होनी चाहिए कि हम उपहार लेने – देने की परंपरा को जीवंत रखें।
कुछ पैसे , कुछ चीजें उपहार के लिए हों। हम जिंदगी में रंग भरने के लिए जिएं। वह होली का रंग हो जैसे चेहरे पर रंग लगाते हैं पर मन रंग से भर दें ! ऐसा तभी संभव है जब हमारे अंदर उपहार देने का उदार मन हो , वह किसी को खुश करने के लिए आतुर रहे फिर आप अपने नाम से पुकारे जाएं अथवा अपने अंदर के सांता को जीवित रखें।
ध्यानार्थ उम्दा लेखक सुशोभित की यह किताब पढ़ते हुए महसूस हुआ कि उन्होंने बड़े सहज भाव से शब्द सजाए हैं और कल्पना को धरातल में उतारकर बहुत अच्छा प्रयास किया गया है। बहुत बधाई हो।