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@Saurabh Dwivedi

चरितार्थ है कि वनवासी राम चित्रकूट मे यहाँ के राजा मतगजेन्द्र नाथ ( भगवान शिव ) से आज्ञा लेकर ही ठहरे थे। यहाँ के राजा मतगजेन्द्र नाथ ही हैं।

जब मेरे पास श्री आशुतोष राणा द्वारा रचित ग्रंथ रामराज्य का आगमन हुआ तो मैंने पढ़ना – मनन करना आरंभ किया। शुरूआती पृष्ठ पढ़ने के बाद ही मैंने बाल जिज्ञासा का वर्णन करते हुए अभिव्यक्ति सांसारिक जगत मे प्रस्तुत कर दी।

जब पुनः पढ़ना प्रारंभ किया , तब एकाएक मेरी छठी इंद्रिय से महसूस होने लगा कि यह ग्रंथ मतगजेन्द्र नाथ को समर्पित होना चाहिए। इसके बाद जब – जब पढ़ने को ग्रंथ उठाने लगा तब – तब यही महसूस होने लगा।

कोरोना वायरस , लाकडाउन और अन्य कारणों से मेरा चित्रकूट पहुंचना संभव नहीं हो रहा था। मन मे बेचैनी हो रही थी। मन ही मन यह निश्चित हुआ कि अब शिव को समर्पित करने के पश्चात ही रामराज्य का अध्ययन किया जाए !

मंगलवार की शाम को मैं और अनुज विवेक तिवारी मतगजेन्द्र नाथ के द्वार तक पहुंचे गए। द्वार पर पहुंचते ही संक्रमण का असर दिखा , द्वार के ऊपरी तल पर दिखा यहाँ तो रास्ता बंद है। नीचे प्रसाद की दुकान पर जानकारी मिली कि शाम 6 : 00 बजे द्वार खुलेगा।

विवेक मे निराशा दिखने लगी कि मेरा विवेक काम करने लगा। मैंने कहा कि नहीं ! एक प्रयास कर लिया जाए। हम दोनों प्रसाद की दुकान पर जूते उतारने लगे।

विवेक ने कहा कि प्रवेश मिलेगा ? मैंने कहा कि हाँ पत्रकारिता का कार्ड कब काम आएगा ! आखिर कुछ तो प्रभाव पड़ेगा , लेकिन मेरे मन मे पुजारी जी के दिख जाने की सोच चल रही थी , और यह कि एक बार उनसे बात की जाएगी।

संस्कार और धार्मिक भावना के वश हम दोनों ने श्रद्धा भाव से पहली सीढ़ी को माथे से लगाया और बैरिकेडिंग के पास तक पहुंच गए। हमें सामने ही मंदिर प्रबंध समिति के कुछ सदस्य दिख गए।

मैंने उनसे अपना परिचय दिया। लेकिन सबसे बड़ा जो परिचय था , वो रामराज्य का परिचय था। एक परिचय श्री आशुतोष राणा का था , जो भगवान शिव के अनन्य भक्त हैं। जब हृदय मे राम – शिव हों और हाथों में रामराज्य नामक ग्रंथ हो तब प्रवेश कहाँ वर्जित हो सकता है !

रामराज्य

इससे पहले एक अद्भुत घटना से भक्त की भक्ति की शक्ति का वर्णन कर रहा हूँ। जिस वक्त हम जूते उतार रहे थे , उस दुकानदार के मन मे कैसे यह बात आ गई होगी कि उसने हमसे कहा कि यदि आप मंदिर जा रहे हैं तो एक काम करिए ?

मैंने कहा कौन सा काम ? उसने कुल ग्यारह ( 11 ) ₹ निकाले। रूपये हाथ मे देते हुए बोलने लगे कि एक भक्त आए थे और मुझे ग्यारह ₹ देकर गए हैं , उन्होंने कहा कि जब मंदिर के पट खुलें तब ये दान राशि समर्पित कर दीजिएगा।

मैंने प्रयोग के तौर पर ग्यारह ₹ ले लिए थे। मैंने कहा कि यदि हम प्रवेश कर गए तो अवश्य हम दान समर्पित कर देंगे , तब तक मेरे अंदर प्रवेश को लेकर विश्वास कुछ कम ही था परंतु कोशिश करने की इच्छा प्रबल थी। अन्यथा मन ही मन सोच लिया था कि अगले दिन या आज ही शाम 6: 00 बजे तक रूका जाएगा।

परिचय देते ही रामराज्य के दर्शन कराते हुए हमें मंदिर मे प्रवेश मिला। अब ग्यारह ₹ पहले से हमारे लिए किसी अजनबी भक्त के थे , इसलिए कुछ दान की राशि मन मे समर्पित करने की इच्छा हुई। जब मैंने पर्स निकाला तो सौ की नोट से छोटी कोई नोट नहीं थी। अंततः शिवकृपा से एक सौ ग्यारह ₹ का समर्पण अजनबी भक्त के साथ स्वयं हो गया। यह भक्ति की शक्ति ही थी कि हमारे द्वारा किसी भक्त के भक्ति का समर्पण पहुंचना तय था।

मैंने रामराज्य ग्रंथ को भगवान शिव को समर्पित कर प्रणाम किया। उनसे मानसिक वार्तालाप हुई , और अथाह सुख प्राप्त हुआ। इससे पहले और बाद तक मैं सोचता रहा कि आखिर लिखूंगा क्या ? कैसे बयां करूंगा यह सबकुछ ?

मुझे सिर्फ यह अहसास था कि रामराज्य जैसा ग्रंथ शिव को समर्पित होना चाहता है और यह भी कि मेरी जिंदगी की पहली ऐसी किताब है जिसके लिए मन मे ऐसी प्रेरणा जागृत हुई। यह सच है कि कोई भी किताब पढ़ते हुए सर्वप्रथम ‘ ॐ श्री परमात्मने नमः ‘ का मनन कर पढ़ने का सुख मिलता है और संभवतः ईश्वर कृपा से ही अंधकार मे प्रकाश व्याप्त हो जाता है। परंतु रामराज्य सिर्फ किताब नहीं ग्रंथ है।

रामराज्य इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस देश में और प्रदेशों मे रामराज्य लाने की प्रतिबद्धता जताई जाती है। अतः देश के नागरिकों का श्रीराम के जीवन चरित्र का अध्ययन करना चाहिए। रामराज्य की मूल अवधारणा को मन से मंथन करना चाहिए। जिससे एक दिन नागरिक ही रामराज्य की अवधारणा साकार कर सकें।

राजनीतिक रामराज्य और सामाजिक रामराज्य के अंतर को महसूस कर सकें। परिवार के अंदर रामराज्य की अवधारणा को साकार कर सकें।

कलयुग मे भी रामराज्य ग्रंथ भगवान मतगजेन्द्र नाथ के पास पहुंचकर आज्ञा ले चुका है , यह स्वयं घटित हुआ है। अब एक बार नहीं अनेक बार रामराज्य को मनन करना होगा और कोशिश होगी कि निजी जीवन से लेकर सामाजिक जीवन तक रामराज्य की अवधारणा को प्रसारित किया जाए।

अंतिम सत्य यह है कि मैं स्वयं आम संघर्षरत प्राणी हूँ और श्रीराम का रोयां भी नहीं हो सकता , यदि रोयां भर हो जाएं तब भी हम सभी सांसारिक प्राणियों का जीवन संवर जाए। वर्तमान की मांग और व्यक्तिगत सामर्थ्य के आधार पर गीता के अनुसार कर्म किए जाएंगे बिना फल की इच्छा के !

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karwi Chitrakoot )

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