@Deepak pandey
वादे के मुताबिक शुरुआत इस तस्वीर से ही करते हैं। तस्वीर में एक मंदिर और उसके बगल में एक मस्जिद दिखाई पड़ रही है। तस्वीर मथुरा श्रीकृष्णा जन्मभूमि की है और तमाम बुद्धजीवी यहां मंदिर और मस्जिद एक साथ होने के कारण गंगा जमुनी तहजीब की शान में कसीदे पढ़ते रहते हैं।
यहां स्पष्ट करते चले कि हमें गंगा जमुनी तहजीब से कोई समस्या नहीं है और अगर यह वास्तव में कहीं हमारे देश मे है तो बड़ी अच्छी बात है। वो अलग मसला है, लेकिन मामला इतना सीधा भी नहीं है जितना कि बताया जाता है और हम इस लेख में यही स्पष्ट करेंगे कि इस गंगा जमुनी तहजीब के नाम पर देश भर के लोगों के साथ कितना बड़ा धोखा किया जा रहा है।
कैसे उनकी आंखों में खुलेआम असत्य के धूल झोंके जा रहे हैं और किस तरह उन्हें उनके विरासत और हजार वर्षों के संघर्ष से अपदस्थ करने का कुत्सिक षड्यंत्र रचा गया है। इस गंगा जमुनी तहजीब के नाम पर।
सबसे पहले तो आप यह जान लीजिए कि ये जो मस्जिद है.. यहां यह होनी ही नहीं चाहिए थी और जो मन्दिर है। उसकी असल जगह वह मस्जिद ही थी, जो मित्र मथुरा श्रीकृष्णा जन्मभूमि गए हैं वो इस तथ्य को जानते हैं और जो नहीं गए हैं उनकी जानकारी के लिए बता दे कि इसी मस्जिद के ठीक निचे सबसे निचले तल्ले पर सँकरी कोठरी में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। इतना सँकरा जितना उस वक्त कंस का कारागार भी नहीं रहा होगा।
दूसरे शब्दों में कहें तो इस नई गंगा जमुनी तहजीब में भगवान श्रीकृष्ण के लिए उतना भी स्पेस नहीं है, जितना कंस के काल मे उनके मां बाप के लिए जेल में था।
इसके पास में ही ASI की एक पट्टी भी है जिसमे स्पष्ट रूप से लिखा गया है.. मूल मन्दिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण किया गया है। इतनी सँकरी जन्मभूमि का बचना भी हिला देने वाली दास्तान है और सदियों के बलिदान और 1000 सालों का अनवरत संघर्ष है।
मुझे मालूम है मेरी मितरसूची में कुछ ऐसे भी लोग होंगे जो इस पोस्ट को करने पर मेरे ऊपर नफरत फैलाने का आरोप लगाएंगे, लेकिन मेरा स्पष्ट मानना है, प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता क्या?
सनद रहे सदियों के संघर्ष में यहां मन्दिर कई बार टूटा और बना और जब तक लोग जाग्रत रहे तब तक इसके लिए संघर्षरत रहे। मन्दिर आज भी मूल जन्मभूमि पर नहीं है बल्कि बगल में है और अतिक्रमण का शिकार है।
हां शगुन के रूप में जन्मभूमि का थोड़ा हिस्सा जरूर है, लेकिन यह भी किसी का एहसान नहीं है। सदियों के संघर्ष का परिणाम है, जिसकी शुरुआत होती है 1017 ई. से, यहां सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य द्वारा 400वीं शताब्दी में बनवाये गए भव्य मंदिर पर महमूद गजनवी ने सन आक्रमण कर इसे लूटने के बाद तोड़ दिया था।
यह वही गजनवी था जिसने सोमनाथ मंदिर को लूटने के लिए तोड़ दिया था। कहा जाता है विक्रमादित्य के कारागार के पास सबसे पहले भगवान कृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ ने अपने कुलदेवता की स्मृति में एक मंदिर बनवाया था।
खुदाई में मिले संस्कृत के एक शिलालेख से पता चलता है कि 1150 ईस्वी में राजा विजयपाल देव के शासनकाल के दौरान जज्ज नाम के एक व्यक्ति ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर एक नया मंदिर बनवाया था। उन्होंने विशाल और भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था। इस मंदिर को 16वीं शताब्दी के शुरुआत में सिकंदर लोदी के शासन काल में नष्ट कर डाला गया था।
इसके लगभग 125 वर्षों बाद जहांगीर के शासनकाल के दौरान ओरछा के राजा वीर सिंह देव बुंदेला ने इसी स्थान पर चौथी बार मंदिर बनवाया। कहा जाता है कि इस मंदिर की भव्यता से चिढ़कर औरंगजेब ने सन 1669 में इसे तुड़वा दिया और इसके एक भाग पर ईदगाह का निर्माण करा दिया।
यहां से प्राप्त हुए अवशेषों से पता चलता है कि इस मंदिर के चारों ओर एक ऊंची दीवार का परकोटा मौजूद था। मंदिर के दक्षिण पश्चिम कोने में एक कुआं भी बनवाया गया था। इस कुएं से पानी 60 फीट की ऊंचाई तक ले जाकर मंदिर के प्रांगण में बने फव्वारे को चलाया जाता था। इस स्थान पर उस कुएं और बुर्ज के अवशेष अभी तक मौजूद है।
ब्रिटिश शासनकाल में वर्ष 1815 में नीलामी के दौरान बनारस के राजा पटनीमल ने इस जगह को खरीद लिया, जबकि 1940 में जब यहां पंडित मदन मोहन मालवीय आए, तो श्रीकृष्ण जन्मस्थान की दुर्दशा देखकर वे काफी निराश हुए।
इसके तीन वर्ष बाद 1943 में उद्योगपति जुगलकिशोर बिड़ला मथुरा आए और वे भी श्रीकृष्ण जन्मभूमि की दुर्दशा देखकर बड़े दुखी हुए। मालवीय की इच्छा का सम्मान करते हुए बिड़ला ने सात फरवरी 1944 को कटरा केशव देव को राजा पटनीमल के तत्कालीन उत्तराधिकारियों से खरीद लिया।
इससे पहले कि वे कुछ कर पाते मालवीय का देहांत हो गया। उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार, बिड़ला ने 21 फरवरी 1951 को श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट की स्थापना की।
ट्रस्ट की स्थापना से पहले ही यहां रहने वाले कुछ मुसलमानों ने 1945 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक रिट दाखिल कर दी। इसका फैसला 1953 में आया। इसके बाद ही यहां कुछ निर्माण कार्य शुरू हो सका। यहां गर्भ गृह और भव्य भागवत भवन के पुनर्रुद्धार और निर्माण कार्य आरंभ हुआ, जो फरवरी 1982 में पूरा हुआ और आज जो मंदिर दिखाई पड़ रहा है वह ज्यादा पुराना नहीं बल्कि 1982 में ही बना है..
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तो ये रहा मंदिर का एक संक्षिप्त इतिहास अब बात करेंगे इसके लिए हुए संघर्ष की तो शुरूआत अकबर से करते हैं, जिसे सबसे बड़ा सेक्यूलर बताया जाता है, लेकिन सच्चाई तो यह है अकबर अपने राज्य में मंदिर तुड़वाता तो था किंतु मंदिर बनवाने की इजाजत नहीं देता था।
स्तंभकार रामसिंह शेखावत द्वारा की मानें तो राम मंदिर की मथुरा में भी मंदिरों के कई बार टूटने और बनने का सिलसिला चला और जैसा कि हमने पहले ही बताया सन् 1018 में महमूद गजनवी ने मथुरा के समस्त मंदिर तुड़वा दिए थे, लेकिन उसके लौटते ही मंदिर बन गए। सन् 1192 में पृथ्वीराज चौहान की पराजय के साथ भारत में मुसलमानी राज्य स्थाई रूप से जम गया। उत्तर भारत में मंदिर टूटने लगे और फिर बनवाए न जा सके। उनके स्थान पर मकबरे-मस्जिदें बना दी गईं।
इस तरह 350 वर्ष तक हिन्दू मंदिर विहीन मथुरा में जीवन बिताता रहा। सन् 1555 में आदिलशाह सूर के सेनापति हेमचन्द्र भार्गव ने दिल्ली-आगरा व आसपास का इलाका जीत अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। उसने यज्ञ कर विक्रमादित्य की उपाधि धारण की और दिल्ली में हिन्दू राज्य की स्थापना की। दुर्भाग्य से हेमू भार्गव का राज्य मात्र एक वर्ष तक ही रहा किंतु इस एक वर्ष में ही आसपास के जाट और यादवों ने मिलकर मथुरा की एक-एक मस्जिद तोड़ डाली। मथुरा खंडहरों का शहर बन गया, किंतु 1556 में अकबर का राज्य स्थापित होने पर नए मंदिर नहीं बन सके।
मथुरा के चौबे की हवेली के पास ही खंडहर था, भगवान कृष्ण की जन्मभूमि का। यह पूरा इलाका कटरा केशवदेव कहलाता था। हिन्दू तीर्थयात्री आते थे। श्रद्धालुओं को प्रतिदिन खंडहर की परिक्रमा-पूजा करते देख चौबे अपनी हवेली में बैठ आंसू बहाता रहा। लेकिन असहाय चौबे कर ही क्या सकता था। राज्य अकबर का, सेना अकबर की, शहर कोतवाल और काजी अकबर के। जब किसी नए स्थान पर ही मंदिर बनाने की अनुमति नहीं थी तो केशवदेव मंदिर पर बनी मस्जिद के खंडहर पर मंदिर कौन बनाने देता।
इन्हीं दिनों राजा मानसिंह बंगाल विजय कर लौटे। अभी तक बाबर, हुमायूं और अकबर भी संपूर्ण बंगाल नहीं जीत सके थे। आगरे में धूमधाम से मानसिंह का स्वागत हुआ। अकबर ने मानसिंह से कहा- जीत के इस मौके पर जो मांगना है, मांग लो। अकबर मन ही मन बंगाल, बिहार और उड़ीसा की सूबेदारी मानसिंह को देने का निश्चय कर चुका था, लेकिन मानसिंह ने अपनी जागीर के लिए मांगा मथुरा और वृंदावन के हिन्दू तीर्थों को।
अकबर इस निष्ठावान हिन्दू की श्रद्धा देख प्रभावित हुआ। उसने मथुरा-वृंदावन के तीर्थ तुरंत मानसिंह को जागीर में दे दिए, साथ ही बंगाल, बिहार, उड़ीसा का नाम बदलकर वीर मानसिंह भूमि कर दिया। वर्तमान में परगना वीरभूमि, परगना मानभूमि और परगना सिंहभूमि के रूप में ये क्षेत्र पुकारे जाते हैं। रेकॉर्ड में यही नाम दर्ज हैं।
मथुरा-वृंदावन के मानसिंह की जागीर में शामिल होते ही वहां से मुगल सैनिक हटा लिए गए, किंतु न्यायाधीश के पद पर काजी डटा रहा। अकबर ने शेख अब्दुल नबी को सदर उल्सदूर (प्रधान धर्माचार्य) के पद पर नियुक्त किया था। यही व्यक्ति न्याय, इस्लाम और धार्मिक स्थानों का कार्य देखता था और मस्जिदों-मकबरों और मुल्ला-मौलवियों को दान-दक्षिणा देता था।
मथुरा की प्रशासन व्यवस्था आमेर कछवाहा सैनिकों के हाथ में आते ही मथुरा के हिन्दुओं का साहस लौट आया। कटरा केशवदेव के चौबे ने कृष्ण जन्मभूमि के खंडहर से पत्थर-ईंटें चुनकर एक चबूतरा बना डाला। उस काल में तब मंदिर बनाने पर रोक थी तो मूर्तियां कौन बनाता? कृष्ण की मूर्ति नहीं थी, सो चौबे ने जल्दी-जल्दी में शिव की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा कर डाली। गुलामी के बीते 350 वर्षों में यह मथुरा का पहला हिन्दू मंदिर था, सो दर्शनार्थियों की भीड़ उमड़ पड़ी।
शहर काजी को पता लगा तो उसने चौबे को अपनी इजलास में तलब किया। लेकिन चौबे को फुर्सत कहां? वह तो दिन-रात पूजन-अर्चन और आते-जाते दर्शनार्थियों की व्यवस्था में लगा था। चबूतरे पर दीवार और गुंबद निर्माण का काम जोरों से चल रहा था। उत्साहित दर्शनार्थी रुपयों के ढेर न्योछावर कर रहे थे। न धन की कमी थी, न जन की।
नि:शुल्क मजदूरी देने वाले श्रमिकों की कतारें लगी थीं। शहर में मुसलमान सैनिक थे नहीं और कछवाह सैनिक आमेर के बाहर प्रथम हिन्दू मंदिर का निर्माण देख पुलक रहे थे। आगरे से एक-दो जत्थे धर्मांध मुस्लिम सैनिकों के आए भी, लेकिन जोश से भरे हजारों दर्शनार्थियों के बदले तेवर देख चुपचाप खिसक लिए।
खबर मिलते ही सदर उल्सदूर और देशी-विदेशी मुस्लिम सरदारों ने सीकरी के दरबार में अकबर को जा घेरा और कुफ्र की सीनाजोरी को कुचलने की मांग करने लगे। दरबार और हरम में पक्ष और विपक्ष में दो दल हो गए। समस्त मुस्लिम सरदार एक ओर तथा हिन्दू सरदार दूसरी ओर हो गए। हरम की मुसलमान बेगमें मंदिर तोड़ने की बात कर रही थीं तो हिन्दू बेगमों और सरदारों का कहना था कि पहले वहां कृष्ण जन्मभूमि का मंदिर था इसलिए जो बन गया, सो बन गया। उसे नहीं तोड़ना चाहिए।
मुस्लिम सरदारों और शेख अब्दुल नबी सदर का कहना था कि राज्य मुसलमानी है इसलिए इस्लामी राज्य में मंदिर का बनना कुफ्र है। वहां मंदिर को तोड़कर मस्जिद बना दी गई थी। वह जैसी भी हालत में है, उस स्थान पर मंदिर का बनना इस्लाम के खिलाफ है।
अकबर दुविधा में फंसा था। भारत का हिन्दू प्रतिरोध तो समाप्त हो चुका था, लेकिन उसके परिवार के मिर्जा और भारतीय अफगान सिर उठा रहे थे। गुजरात के मिर्जा अब्दुल्ला, जैनपुर चुनार के अलीकुली खां, खानजमां और बहादुर खां, मालवा-कड़ा के आसफ खां, बंगाल के अफगान दाऊद खां और काबुल का उसका भाई मिर्जा हकीम मानसिंह और टोडरमल की तलवारों से ही झुकाए जा सकते थे।
वह राजपूतों को दुश्मन बनाना नहीं चाहता था और न देशी-विदेशी मुसलमानों को नाराज करना चाहता था। इस कारण उसने सदर से कहा, यह धार्मिक मामला है और आप उसके प्रमुख हैं, जैसा चाहें वैसा करें। मैं हस्तक्षेप नहीं करूंगा।
शेख अब्दुल नबी सदर ने फरमान जारी किया कि बिना इजाजत बन रहे मथुरा के मंदिर को तोड़ दिया जाए, साथ ही दो हजार मुगल सैनिक मथुरा रवाना कर दिए। आगरा से उड़ी खबर मथुरा पहुंची, अब मंदिर तोड़ दिया जाएगा! आग की तरह खबर गांवों में फैल गई। मथुरा के चहुंओर बसा ‘अजगर’ फुफकार उठा। अ से अहीर, ज से जाट, ग से गड़रिए और र से राजपूत सिर पर कफन बांधकर मथुरा पर उमड़ पड़े।
जन्मभूमि परिसर और मथुरा की गलियां भर गईं। जैनों, अग्रवालों, कायस्थों ने धन की थैलियां खोल दीं। मथुरा का हर हिन्दू घर रसोड़ा बन गया। हिन्दू देवियां रात-दिन पूड़ी-साग बनातीं और उनके मरद हाथ जोड़-जोड़ मिन्नतें कर बाहर से आए धर्मयोद्धाओं को खिलाते। वणिकों की गाड़ियां घर-घर आटा बांटती फिरतीं। सारा मथुरा उत्सव नगर बन गया था।
मुगल दस्ता मथुरा पहुंचा तो गली-मोहल्लों में खचाखच भरे हथियारबंद हिन्दुओं को देख सहम गया। तब घूमकर मुगल घुड़सवार जन्मभूमि पहुंचे। वहां भी हिन्दू जनता अटी पड़ी थी। मुगलों को जन्मभूमि की ओर जाते देख मथुरा के कछवाहा सैनिक भी घोड़ों पर बैठ उसी ओर चल दिए। कछवाहा सैनिकों को देख मुगलों की हिम्मत बंधी। मुगल सरदार ने ऊंची आवाज में परिसर में खड़े हिन्दुओं से कहा- ‘आप लोग यह जगह खाली कर दीजिए, यहां बिना इजाजत काम हो रहा है, नहीं तो खून-खराबा हो जाएगा।
लेकिन कोई टस से मस नहीं हुआ। ये तो मौत को गले लगाने आए थे, कौन हटता, कौन मां का दूध लजाता? तब मुगलों ने तलवारें सूंत लीं। परिसर में खड़े हिन्दू भी गेती-फावड़े, लाठी-बल्लम, पत्थर-ईंट जो भी मिला, लेकर सन्नद्ध हो गए। मुगल घुड़सवार हमला करें, उसके पूर्व ही कछवाहा सैनिक तलवारें खींच मुगलों और जनता के बीच आ गए। कछवाहा सरदार ने मुगल सालार से कहा- ‘मियां! एक भी हिन्दू को हाथ लगाने की हिम्मत की तो तुम्हारी यहीं कब्रें बना दी जाएंगी।
इस बदली परिस्थिति में मुगल चकरा गए। जनता से तो जैसे-तैसे भिड़ लेते, लेकिन शाही कछवाहा सैनिकों से पार पाना कठिन है। सारी जनता इनके साथ है। गनीमत इसी में है कि लौट चला जाए। और बागें मुड़ गईं, मुगल जैसे आए थे, वैसे ही लौट चले।
आगरा जाकर मुगल सालार ने जनता की और कछवाहा सैनिकों की बगावत की बात नमक-मिर्च लगाकर अकबर को सुनाई। सदर और मुसलमान सरदारों ने भी दबाव डाला, लेकिन महाविनाश की आशंका से अकबर चुप्पी साध गया। उधर मेवाड़ में महाराणा प्रताप एक के बाद एक मुगल किले छीनते जा रहे थे। चित्तौड़, अजमेर और मांडलगढ़ को छोड़ सभी जगह से मुगल खदेड़ दिए गए। अकबर ने सोचा कि 50 हजार कछवाहे सैनिक महाराणा प्रताप से मिल गए तो फिर मेरी सल्तनत का क्या होगा?
लिहाजा आखिरकार यह तय हुआ कि चौबे को आगरा बुलाया जाए और पूछताछ की जाए। दरबार के राजा बीरबल और अबुल फजल आगरा भेजे गए। वे अपनी ओर से विश्वास दिलाकर उस ब्राह्मण को लेकर आगरा आए और दरबार में निवेदन किया कि थोड़ी बेअदबी जरूर हुई है लेकिन अपने देवता के जन्मस्थान पर मंदिर बनाना कोई अपराध नहीं है।
अब तो ब्राह्मण (चौबे) राजधानी आगरे में आ चुका था। उसके समर्थक हिन्दू प्रजा और हिन्दू कछवाहे तो यहां थे नहीं, तो सदर के हुक्म से वह जेल में डाल दिया गया।
अब दरबार में रोज बहस होती, उस ब्राह्मण के साथ क्या किया जाए। मुसलमान मृत्युदंड पर अड़े थे और और हिन्दू जुर्माना लेकर तथा बेइज्जत कर शहर में घुमाकर छोड़ देने का कह रहे थे। मानसिंह सारी बहस को चुपचाप सुन रहा था। मानसिंह की अंगारा उगलती आंखें और चुप्पी उसके मन का संकल्प बता रहे थे।
अकबर को सामने टूटकर बिखरता मुगल साम्राज्य दिख रहा था। अकबर ने मानसिंह और टोडरमल को अलग से बुलाया और कहा- ‘राजा साहब! मथुरा में मंदिर को तोड़ने की आज्ञा तो मैं नहीं दूंगा और वृंदावन में अगर आप चाहें तो और मंदिर बनवा सकते हैं, उसमें मैं हस्तक्षेप नहीं करूंगा।’
इधर सदर अब्दुल नबी व कट्टर मुल्ला-मौलवियों को अलग से बुलाकर कहा- ‘मथुरा-वृंदावन अब मानसिंह की अमलदारी में है। वहां मुगल हुकूमत नहीं है, सो आप वहां के लिए कुछ मत कहिए। ब्राह्मण आपके कब्जे में हैं, उसके लिए जो भी चाहे फैसला करें।’
अगले दिन शेख सदर ने ब्राह्मण का कत्ल करवा दिया। ब्राह्मण के कत्ल की खबर फैलते ही हिन्दू दरबारी सीकरी के तालाब पर जा पहुंचे। पुन: बहस छिड़ गई। फाजिल बदायूंनी हत्या को उचित ठहरा रहा था तो अकबर ने डांटकर उसे दरबार से भगा दिया, फिर जीवनपर्यंत बदायूंनी दरबार में नहीं आया। बादशाह के गुरु शेख मुबारक ने कहा कि सारी इमामत और निर्णय के अधिकार अकबर के पास होने चाहिए। उनके ऐसा कहने पर शेख सदर के सारे अधिकार छीन उन्हें मस्जिद में बैठा दिया गया, किंतु हिन्दू शांत नहीं हुए।
मानसिंह के सैनिक शेख अब्दुल नबी सदर की मस्जिद के चारों ओर चक्कर काटने लगे और कट्टर मुस्लिम सैनिक भी सदर की प्राणरक्षा के लिए मस्जिद में जमा होने लगे। दिन-पर-दिन आग भड़कती ही गई। मुगल साम्राज्य को बचाने के लिए अकबर ने शेख अब्दुल नबी को एक रात चुपचाप सीकरी बुलवाया और कहा- ‘मुगल तख्त और आपकी जान की सलामती इसी में है कि आप चुपचाप हज के बहाने मक्के चले जाओ और फिर लौटकर भारत मत आना।’ (मुहम्मद हुसैन आजाद कृत ‘अकबर के दरबारी’)
अकबर ने सदर को बहुत सा धन और मखदूम-उलमुल्क के साथ हज रवाना किया और वृंदावन में 4 मंदिर बनाने की इजाजत दे दी। सबसे पहले गोपीनाथ का मंदिर फिर मदनमोहन का मंदिर और 1590 में गोविंददेव के मंदिर बने। सबसे अंत में जुगलकिशोर का मंदिर 1627 में जहांगीर के काल में पूर्ण हुआ। (स्मिथ पृष्ठ 479)
मक्का में शेख का मन नहीं लगा और उसकी मौत उसे भारत खींच लाई। वह जहाज में बैठ खम्भात आया। यहां हालात बदले हुए थे। शेख सीधे अकबर के दरबार में पहुंचा। जो अकबर कभी इनके जूते उठाकर पहनने के लिए देता था, अकबर को कभी इसने एक डंडा मारा था और बादशाह ने उसे प्रसाद समझकर ग्रहण किया था, उसी अकबर ने इसे दरबार में देखते ही कसकर मुंह पर एक घूंसा मारा। सदर ने चुपचाप इतना ही कहा- ‘जहांपनाह! मुझे छुरी से ही क्यों नहीं मार डालते।
टोडरमल भी खार खाए बैठा था। मक्का जाते समय इसे खजाने से 70 हजार रुपया दिया गया था। टोडरमल ने उस रुपए का हिसाब मांगा। फैसला होने तक ये अबुल फजल की निगरानी में रखे गए। मानसिंह के सैनिक अबुल फजल की हवेली के चक्कर काटने लगे। अकबर ने संकेत किया- ‘भले मानस! राजपूत इसके खून के प्यासे हैं। कहीं ऐसा न हो कि इसके साथ मैं और मेरी सल्तनत भी तबाह हो जाए।’
और एक रात शेख अब्दुल नबी सदर को कोई अबुल फजल की हवेली से उठा ले गया। दूसरे दिन आगरावासियों ने देखा कि मुनारों के मैदान में इस्लाम के धर्माचार्य शेख की लाश लावारिस पड़ी है। दूर कुछ कछवाये घुड़सवार चक्कर लगा रहे थे, डर के मारे कोई लाश के पास जा नहीं रहा था।
इसके बाद मुगल बादशाह औरंगजेब को तो जानते ही हैं उसकी छवि हिंदू विरोधी शासक की थी और उसने हिंदू स्कूल और मंदिरों को ध्वस्त करने का आदेश दिया था. इस साल में ही औरंगजेब ने बनारस के विश्वनाथ मंदिर और मथुरा के केशव राय मंदिर को तुड़वाने का प्रयास किया था.
कहा जाता है कि औरंगजेब ने अपने शासन के दौरान कई हिंदू विरोधी फैसले लिए थे. अपने शासन काल के 11 वर्ष में ‘झरोखा दर्शन’, 12वें वर्ष में ‘तुलादान प्रथा’ पर प्रतिबन्ध लगा दिया था और 1668 ई. में हिन्दू त्यौहारों पर बैन लगा दिया था. साथ ही औरंगजेब ने शरीयत के विरुद्ध लिए जाने वाले करीब 80 करों को खत्म कर दिया था.
कई इतिहासकारों का कहना है कि औरंगजेब ‘दारुल इस्लाम’ (इस्लाम का देश) में परिवर्तित करने को अपना महत्त्वपूर्ण लक्ष्य मानता था. 17वीं सदी में बादशाह औरंगज़ेब ने एक मंदिर तुड़वाया था और उसी पर मस्जिद बनी थी. इसके लिए भवन सामग्री से जन्मभूमि के आधे हिस्से पर एक भव्य ईदगाह बनवा दी गई।
इस परिसर को लेकर कई वर्ष अदालत में मामला चला, लेकिन दोनों धर्मों के विद्वानों ने 1968 में एक समझौता किया था. अदालत के बाहर हुए इस समझौते को अदालत की मान्यता भी मिली हुई है. इसके तहत ये फ़ैसला लिया गया था कि इससे संबंधित सभी मामले समाप्त किए जाएँ, एक मंदिर की स्थापना हो और मस्जिद में भी काम चलता रहे.
इस तरह श्रीकृष्ण के इस भव्य एवं दिव्य मंदिर का इतिहास पिछले दो हजार साल में काफी उतार-चढ़ाव का रहा है। आतताइयों ने इसे कम से कम तीन बार नष्ट किया, लेकिन भक्तों की श्रद्धा एवं विश्वास में कोई कमी नहीं आई। आज भी हर साल भारी तादाद में कृष्ण उपासक यहाँ आकर अपने को धन्य महसूस करते हैं और ‘जय कन्हैयालाल की’ और ‘राधे-राधे’ का उद्घोष करते हैं।
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