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Saurabh Dwivedi

प्रोफेशनल और प्रोफेशनलिज्म के दौर में सच और झूठ का वास्ता कम होता चला जाता है। अब हम इंसान और इंसानियत से ज्यादा प्रोफेशनल बनाने लगे हैं और इंसानियत से ज्यादा प्रोफेशनलिज्म को फालो करने की बात कहने करने लगे हैं। 

यहीं से हकीकत परत दर परत अवसान की तरफ बढ़ती जा रही है। सत्य असत्य की बात पीछे छूटती जा रही है, जो आज के दौर में कम से कम इंसान और इंसानियत के लिए बड़ी खतरनाक पद्धति भी साबित हो रही है। 

ये उसी प्रकार से है जैसे समाज झूठे आडंबर और तमाम गैर जरूरी प्रथाओं के चलते प्राणियों के मन से प्रेम वाले प्राण खत्म कर देता है। एक लकीर बना दी गई है और उस लकीर पर रह कर व चल कर ही सामाजिक प्राणी कहला सकते हैं। अन्यथा की स्थिति में हुक्का पानी कर दिया जाएगा। 

अगर हम प्रोफेशनलिज्म को फालो नहीं करते तो हमारे आय के साधन पर पाबंद लग जाएगा। रोजी रोटी के सवाल के साथ सच से मुंह मोड़ लेते हैं। अधिक से अधिक धन कमाने के लिए खराब से खराब प्रोडक्ट को उत्तम कहना है और ये काम बड़े बड़े सूरमा भी कर रहे हैं, जिन्हें अंग्रेजी में सेलिब्रिटी कहते हैं। वे सच से मुह मोड़कर करोड़ो की धनराशि मिनट भर में अर्जित कर लेते हैं। यहाँ तक की झूठी मुस्कान व पालिस किए चमकते दांत दिखाकर। 

ये दौर बेहद खतरनाक महसूस होता है। परंतु इस पर चिंतन कब और कैसे होगा यह यक्ष प्रश्न है ? असल में मैं एक किताब पढ़ रहा था। मुझे उस किताब की समीक्षा लिखनी थी। लेकिन किताब पढ़ते हुए उसकी तमाम अच्छाइयों के साथ बहुत कुछ गैर जरूरी लगा और उसके नकारात्मक पक्ष से लोगों को रूबरू होना चाहिए, किन्तु मन में एक बात आई कि उन्होंने कहा था कि अच्छी समीक्षा लिखिएगा। अब अच्छी समीक्षा लिखने का अर्थ क्या होता है, यही ना कि कुछ भी नकारात्मक नहीं लिखना है। बेशक दौर भी ऐसा चलने लगा है कि किताब लिखना और प्रकाशित करना व कराना सबकुछ बाजारवाद की गिरफ्त में हो गया है। 

किताब प्रकाशित होने से पहले बिकने के बारे में सोचा जाता है। अमुक किताब बिक सकेगी या नहीं और बिकेगी तो कितनी बिकेगी। यहाँ तक की बेस्ट सेलर बन सकते हैं या नहीं ! 

जब इतने सारे सवाल आ जाते हैं तो किसी कास्मेटिक प्रोडक्ट की तरह किताब का भी प्रचार प्रसार किया जाता है। अब मेरे मन में भी यही बात आई कि समीक्षा में वो चंद शब्द का सच भी नहीं लिखा जा सकता, जो एक लेखक को बुरा लग जाए और हमारे संबंध खराब हो जाएं। यहाँ तक की समीक्षा प्रकाशित करने वाली पत्र – पत्रिका यही चाहती है कि हम सकारात्मक और अच्छा लिखें मतलब हम प्रोफेशनल कैरेक्टर निभा रहे हैं। 

अब कौन कहाँ सच के लिए लड़ेगा, सच के लिए खड़ा होगा और सच लिखेगा ? बहुत पहले ही सत्यम् ब्रुयात प्रियम् ब्रुयात कहा गया है। शायद इन दिनों के लिए ही कहा गया था। अर्थ युग में सिर्फ अर्थशास्त्र ही सबसे बड़ा शास्त्र बन रहा है। यहाँ इसके सिवाय कोई और विकल्प भी नहीं रहा जा रहा है। 

समाज प्रोफेशनलिज्म की पटरी में बुलेट ट्रेन की रफ्तार से आगे बढ़ रहा है, कोई ब्रेक लगाकर थमने और मंथन करने को तैयार दिखता नहीं है। अब ऐसे में किया क्या जाए ? जो भी थमता है उसी का नुकसान होता दिखता है और लाभ वाली मानसिकता की दुनिया में जानबूझकर अपना नुकसान कौन करता है पर हमारे अंदर बहुत कुछ मरता चला जा रहा है। हम सच की लाशें मन में बसाते चले जा रहे हैं। यही हमारी कमजोरी की सबसे बड़ी वजह है। वक्त अभी भी है कि हमें कड़वा सच आत्मसात करना चाहिए और प्रोफेशनलिज्म के ट्रैक से यदाकदा डिरेल होकर थोड़ा नुकसान सह लें, जिससे इंसान व इंसानियत जिंदा रहेगी। सच को जीवित रखने के लिए इतना करना आवश्यक प्रतीत होता है। जब हम इतनी हिम्मत जुटा पाएंगे तब अपने अपने हिस्से की इंसानिय को जिंदा रख पाएंगे और सच कहने का साहस हर किसी के अंदर रहेगा वरना झूठी मुस्कान से मन को सुख नहीं मिला करता और एक अच्छे समाज व संसार का निर्माण नहीं होता है। 

इसके लिए ऐसा वातावरण तैयार करना होगा कि आने वाली पीढ़ियों में लोग सच बोलने लिखने से ना डरें और यह तब हो सकता है जब हम आज इसके लिए तैयार हो जाएं वरना हम अपने पीछे क्या छोड़कर जाएंगें ? सच ना बोलने लिखने के भय को समाप्त कर सच बोलने लिखने के साहस को जिंदा रखकर ही दुनिया छोड़नी चाहिए हमें। हम सबका इतना सा कर्तव्य इंसान और इंसानियत के लिए बनता है।

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