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Saurabh Dwivedi 

26 जनवरी शीघ्र ही आने वाली है और अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी पुनः याद किए जाएंगे। हम पुनः कहेंगे कि हमारी मातृभूमि अहिंसावादी विचारधारा की है। पूर्ण श्रद्धा के साथ महात्मा गांधी सहित तमाम महापुरूषों को श्रद्धा सुमन अर्पित करेंगे। परंतु हकीकत में पुणे जैसी हिंसा और पूर्व में हुई तमाम हिंसाएं अहिंसावादी विचाराधारा पर बड़ा कुठाराघात हैं। हमारी कथनी और करनी में यही व्यापक अंतर है। इस बड़े अंतर को पाटने वाला नेतृत्व अभी तक वापस भारत की सरजमीं में जन्म नहीं ले सका। 

आजादी की पूर्व की पार्टी जो हमेशा से गोडसे और गांधी के व्यक्तित्व को आधार बनाकर राजनीतिक लाभ लेती रही और लेना चाहती है। उसके ही नेता हिंसा का समर्थन करते हुए अगर महसूस हों तो यकीनन इससे चिंता जनक कुछ और नहीं !

एक और बड़ी बात निकलकर आती है कि वर्तमान में ज्यादातर नेतृत्व हताशा और अवसाद से जन्म ले रहा है। जब ऐसा नेतृत्वकर्ता होगा तब उससे और उम्मीद भी क्या की जा सकती है ? आजकल जातिवादी आंदोलन से उभर कर लोग नेता बन रहे हैं और आंदोलन भी कैसा हिंसात्मक। जिस हिंसा के जरिए वो राजनीतिक पटल पर आए वे सिर्फ हिंसा फैलाकर ही अपने राजनीतिक अस्तित्व को जिंदा रखना चाहेंगे। 

जिग्नेश मेवाडी का ऐसा ही हिंसात्मक व्यक्तित्व पुणे की हिंसा से सामने आया है। इससे पूर्व भी वे हिंसा के जरिए गुजरात में नेता बने। अब ऐसे लोगों को नेतृत्व इसी में झलक सकेगा। 

साफ सुथरा और संवेदनशील शांत स्वभाव का आध्यात्मिक नेतृत्व भारत में नजर ही नहीं आ रहा। जो शांति और अहिंसा से हर मुद्दे को हल करनी की गुणवत्ता का जनक हो। ये पूरा देश एक तरह से खतरे के निशान में आ रहा है। जब सार ही हिंसा का हो जाए और मनुष्य पशु की पशुता व जानवर से अधिक क्रूर हो जाए तो समझना चाहिए कि मनुष्यों के सीने में किस प्रकार का ज्वालामुखी पल बढ़ रहा होता है। 

कोई हिंसा एकाएक नहीं होती बल्कि यह ज्वालामुखी के समान की प्रक्रिया है। देश के नेतृत्व व सामाजिक स्वभाव के लोगों को समय रहते चिंतन करना चाहिए। जब हम इस खाईं को पाट सकेगें तब हमारी आजादी के दिन और संविधान बनने के दिन का महत्व सिद्ध हो सकेगा। यही महापुरूषों को वास्तविक श्रद्धा सुमन होगें।


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