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By – Saurabh Dwivedi

पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश करते ही वो ग्राउंड जीरो पर खबर के लिए चल पड़ा था। जैसे ही वह रेलवे क्रासिंग के पास पहुंचता है , उसकी नजर जमीन पर पड़ती है और 10,000₹ उसके हाथ लग जाते हैं। जिसके रूपए गिरे थे वो तेज रफ्तार में निकल गया।

ये उस दौर की बात है , जब सोशल मीडिया , डिजिटल मीडिया जैसी तकनीकी सोच साकार नहीं हुई थी। सिर्फ एक ही रास्ता था कि वो धनराशि थाने में जमा कर दी जाए और अखबार के माध्यम से समाज को सूचना मिल सके।

उस युवा पत्रकार ने यही रास्ता अपनाया और कोतवाली में धनराशि जमा कर दी। शाम तक प्रत्येक अखबार के कार्यालय तक विज्ञप्ति पहुंच गई और सुबह खबर प्रकाशित होती है। वह खबर बांदा जनपद के बबेरू में पढ़ी जाती है , उस धनराशि का सिर्फ एक आधिकारिक व्यक्ति ही सामने आया और युवा पत्रकार की पहचान से उसे वह धनराशि दे दी गई।

लोगों ने युवा पत्रकार से पूंछा था , आपको दस हजार रुपये मिले और आप चाहते तो चुपचाप अपनी जेब में रख लेते ? युवा पत्रकार का जवाब था कि बेशक मैं ऐसा कर सकता था। किन्तु सोचिए कि जो व्यक्ति तेज बाईक से निकल गया था , संभव है कि ये धनराशि किसी की बीमारी के काम के हों , मान लीजिए उसकी माँ बीमार हो और हम पैसे लेकर चंपत हो जाएं तो कितना गलत होगा कि बीमार का इलाज ना हो सके ?

समझिए कि यह धनराशि शिक्षा अथवा किसी भी तात्कालिक जरूरी काम के लिए रही हो और वह काम ना हो पाए तो मैं कितना गलत होता ? सच है कि किसी के पैसे मिल जाने से क्षणिक सुख हो सकता है पर जिसके पैसे खो जाते हैं , उसके दर्द का अहसास हमें होना चाहिए।

इस दुनिया में ऐसे लोग भी आसपास होते हैं कि मिले हुए पैसे पार कर जाने की सलाह मुफ्त में देते हैं। किन्तु अगर सही और गलत का फैसला चित्रकूट प्रेस क्लब के संस्थापक अध्यक्ष satyaprakash dwivedi की तरह करना जानते हैं तो समाज में ईमानदारी की कहानी ऐसे ही जीवंत रहेंगी। हाँ वो युवा पत्रकार कोई और नहीं बड़े भाई सत्यप्रकाश द्विवेदी हैं। आपका कहना है कि यदि जीवन में सही और गलत का फैसला करने की क्षमता विकसित कर ली तो ईमानदारी लीडरशिप में सदैव जीवित रहेगी।

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