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By :- Saurabh Dwivedi

शासन है , प्रशासन और मनुष्य है। प्रेम , सुरक्षा और मानवता की बातें की जाती हैं , पर कमी कहाँ रह गई ? भय कानून का या फिर संस्कृति , संस्कार और सभ्यता में कमीं ? दिल्ली का जलजला देख लगा था कि निर्भया मामले के बाद बलात्कार जैसे घृणित अपराध का सामना समाज को नहीं करना होगा। अब किसी बेटी के साथ दुर्दांत घटना नहीं होगी परंतु यह लगातार भयावह होता जा रहा तो क्या जागता हुआ मनुष्य सो रहा है ? लोग रात के बजाए दिन में भी सो रहे हैं। सामाजिक चेतना मरणासन्न हुई जा रही है। इन दिनों एक चेतना तेजी से जागृत हुई है कि मामला कोई भी हो धार्मिक अलगाववाद में विभाजित कर दो। कुछ हिन्दू और कुछ मुसलमान ” ताना जी ” बन चुके हैं जो धर्म के मर्म को समझे बगैर बलात्कार के मामले मे भी मुसलमान खोज लाते हैं , ताना मारते हैं। परंतु ये उस कुंठित मानसिकता पर प्रहार करने की शक्ति नहीं रखते , जिनके लिए एंटी रोमियो स्क्वाड बनाना पड़ता है ! प्रियंका रेड्डी मामले पर भी सेक्सिस्ट टिप्पणी करने वाले रोमियो और आपराधिक छवि के लोगों के खूनी मन – मस्तिष्क और पंजे हैं।

सवाल समाज से है कि ऐसी घटनाओं के जरिए भी आप देश विभाजन की कगार पर ले जाना चाहते हैं। जबकि सच है परिवार हिन्दू हो अथवा मुस्लिम परिवार हो , उस परिवार के अंदर भी वैचारिक मतभेद कायम रहते हैं। संघर्ष परिवार के अंदर ही है। संघर्ष समाज में व्याप्त है।

समाज को इस ओर सोचना चाहिए कि बलात्कार की इतनी घटनाएं सामाजिक विफलता की द्योतक हैं कि नहीं ! जघन्य अपराध समाज के अंदर हो रहा है तो हल भी समाज में व्याप्त है। किसी भी समस्या के अंत के लिए जितना भय कानून का आवश्यक है उतना ही संस्कार समाज से जरूरी है।

वास्तव में यह बड़ी गहरी बात है। जिस पर चोट की जाएगी तो समाज के खूनी पंजे ही कहने वाले का मुंह नोचने लगेंगे। फिर भी सवाल है और रहेगा कि सेक्स पर प्रतिबंध क्यों ? सेक्स को टैबू क्यों बना दिया गया है ? प्रेम कथित मर्यादा की दहलीज में गुलाम क्यों है ?

एक अच्छे विचारक ने कहा था कि परिवार में सामाजिक संस्थागत वैश्यालय चल रहा है। इस समझने के लिए ध्यान आकर्षित करना होगा कि जिस विवाह में प्रेम ही नहीं है , वह विवाह बिन भावनाओं और प्रेम के अभाव में सुहाग रात मनाने की घोषित अनुमति प्राप्त करता है। बिन अहसास के दो देह मात्र दैहिक सुख के लिए क्षण भर को आंदोलित हो जाती हैं। जबकि बिन गहरे प्रेम के आलिंगन का सुख भी कहाँ ?

साथ ही समाज को विवाह करने की पद्धति पर भी विचार करना चाहिए। जैसे कि वर्तमान समय में इतनी स्वीकार्यता आई है कि लड़का – लड़की कम से कम एक – दूसरे को पसंद कर लें। इतनी सी समाज की प्रगति सीमित क्षेत्र एवं सीमित परिवारों में हुई है। हाँ यह विश्वास किया जा सकता है कि एक दिन ये समाज और परिवार के विवाह के लिए तब कहेगा कि पहले धैर्य से महसूस कर लो कि तुम में एक – दूसरे के प्रति प्रेम भाव का जन्म अंकुरित हो सकता है कि नहीं !

हिन्दू विवाह पद्धति की बात की जाए तो पंडित जी पत्रा से लड़का – लड़की का गुण मिला देते हैं। यदि एक नाम से गुण ना मिला तो दूसरे तथाकथित नाम से भी पंडित जी गुण मिला देते हैं। जबकि हकीकत में वो लड़का-लड़की एक – दूसरे की आदतों से अपरिचित होते हैं। उन्हें एक-दूसरे की बोली – भाषा पसंद आएगी या नहीं , उनका मानसिक स्तर मिलता है या नहीं !

इतनी विशाल कमियां हमारे समाज में व्याप्त हैं। जो मनुष्य की जिंदगी की प्रगति में भी बड़ी बाधक हैं। अगर सर्वे करवा लिया जाए तो विवाह की वजह से व विवाह के बाद बहुत सी जिंदगियों की प्रगति में बाधा उत्पन्न हुई मिलेगी। जिस सुख के लिए विवाह होता है , वह जिम्मेदारी का भाव बनकर मृत्युकाल तक निभाया जा रहा होता है।

हमारे यहाँ बच्चों का जन्म भी इसलिये हो जाता है कि हाँ हम माँ – बाप बन गए हैं। चूंकि बाहर वाले कहते हैं कि शादी हुई है कि नहीं ! शादी हो गई तो बच्चे हुए हैं कि नहीं ! अगर बच्चे नहीं हुए तो लड़की बांझ कहलाएगी और लड़की अगर एक लड़की को जन्म देगी तो इसी समाज का कोई दैत्य उसका बलात्कार कर जला देगा !

ये समाज की हकीकत है। एक समाज के तौर पर निम्नतम स्तर को प्राप्त करते जा रहे हैं। बेशक बलात्कारी दरिंदों को फांसी होने की वकालत भी वर्तमान में सही है परंतु ऐसे घृणित अपराध को रोकने के लिए शायद लंबा समय लग जाए अथवा हम कभी रोक ही नहीं पाएंगे।

चूंकि जब प्रेम और स्वतंत्रता की बात आती है तो हम पश्चिमी सभ्यता को कोसने लगते हैं। हम कहने लगते हैं कि सबसे ज्यादा बलात्कार अमेरिका में होते हैं , यह आधी – अधूरी जानकारी ही घातक है। जबकि पश्चिमी सभ्यता की उन्नति आधुनिक युग में किसी से छिपी नहीं है और वहाँ का प्रेम व वैवाहिक जीवन भी कम से कम इस बात पर निर्भर है कि दोनों एक-दूसरे से अच्छे से वाकिफ होते हैं। उनमें आखिर कुछ तो भाव होता है।

उस एक साथ रहने से बेहतर है कि अलग हो जाएं , जिसमें समाज और कानून के भय से दो जिंदगियां जबरन एक छत के नीचे निर्वाह किया करती हैं। जबकि उनमें प्रेम कभी हुआ ही नहीं होता। अमेरिका में अगर कोई अलग भी हो जाता है तो यह उस मानसिक दबाव के निर्वाह से बेहतर है , जिसमें जिंदगी जाल में फंसी हुई महसूस होती है। इसलिये यह सबकुछ भी मायने रखता है। चूंकि संसर्ग के समय का भाव और गर्भ ठहरने से लेकर जन्म तक मानसिकता काम कर रही होती है।

यह भारत का ही आध्यात्मिक – धार्मिक इतिहास है कि अभिमन्यु ने गर्भ में ही चक्रव्यूह तोड़ना सीख लिया था। तो समझने की बात है कि सेक्स कितना महत्वपूर्ण है , जिसमें स्वच्छ और प्रेमिल मानसिकता काम करती है। तदुपरांत गर्भ के समय माँ की जीवनशैली मायने रखती है। उसका पठन – पाठन और तमाम क्रियाकलाप भी !

गर्भ से ही समाज की व्युत्पत्ति है। अतः इस समाज को इंकार से अधिक इकरार को अंगिकार करना होगा। अस्वीकार से ज्यादा स्वीकार्य को महसूस करना होगा। वह पश्चिम से स्वीकारना हो तो स्वीकारना चाहिए। जिंदगी और धर्म पूरक हो सकते हैं परंतु प्रत्येक जिंदगी का अपना अनुभव और उसका धर्म हो सकता है।

इसलिये जीवन को जीवन की दृष्टि से जीना चाहिए , उसमें प्रेम को मारकर जिम्मेदारी निभाने भर का दमन काम नहीं आएगा। अपराध और आपराधिक प्रवृत्ति के लोग दमन की वजह से बढ़ते चले जा रहे हैं। जिन पर अंकुश नहीं रह गया है। हाल फिलहाल यह अंकुश होता दिख भी नहीं रहा है।

परिवर्तन व्यक्तिगत जीवन और सोच से आएगा। जो लोग अपनी जिंदगी के लिए प्रेम अपनत्व को स्वीकार कर लेंगे और सुखमय जीवन के लिए स्वविवेक का प्रयोग करने लगेंगे , वह सामाजिक सुधार की ओर भी एक कदम रख देंगे। साथ ही कम से कम मृत्यु से पहले स्वयं की जिंदगी का सुख जी लेंगे। स्वतंत्रता को सही मायने में जी लेंगे।

संभवतः एक दिन कुछ सौ वर्ष या हजार वर्ष में समाज बदल जाए , जब हम इस दुनिया में इस देह और नाम के साथ नहीं रहेंगे। जैसे कि आज गांधी , ओशो , स्वामी विवेकानंद और सुकरात जैसे समाज सुधारक व दार्शनिक नहीं है परंतु इन्होंने अपने विचारों से सामाजिक आहूति दी थी।

कभी यहाँ ओशो को भी अस्वीकार्य किया गया था। फिर भी आज ओशो के विचारों को स्वीकार किया जा रहा है तो आपका भौतिक विकास कितनी भी तेज रफ्तार से चल रहा हो परंतु जिंदगी को जीने के लिए बहुत धीमी गति से आडंबर और तथाकथित इज्जत आदि को त्यागने में बहुत धीमी गति से प्रगति हुई है।

यही वजह है कि पेशेवर अपराधियों को छोड़कर और इस प्रकार के घृणित बलात्कार की घटनाओं को छोड़कर कहा जाए तो बहुत कुछ हमारे समाज , राजनीति और जनसंख्या विस्फोट की देन है। इसके नियंत्रण में लंबा समय लगेगा और यह तब संभव है जब हम इसके लिए तैयार हों !

प्रियंका रेड्डी जैसे बलात्कार की घटनाएं समाज में भूकंप सी कंपकंपी ला देती हैं। परंतु इस लड़ाई को धार्मिक सांचे में ढालकर कमजोर नहीं किया जाना चाहिए। असल में प्रियंका रेड्डी नहीं मनुष्यता जलकर खाक हुई है। इसे बचाने के लिए वृहद् सामाजिक जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता है , जो अनवरत चलता रहे। साथ ही कानून भी अपना काम जिम्मेदारी से करे। अन्यथा कुछ पलों के धिक्कारने और रो लेने से इस समस्या का अंत नहीं होगा।

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