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By : Saurabh Dwivedi

गरिमा संजय एक ऐसी रचनाकार जिनकी प्रत्येक किताब से जिंदगी रिश्ते और समाज की गहरी से गहरी पर्त  खुलकर इंसान के मन – मस्तिष्क में समा जाती है। उनका ऐसा ही उपन्यास ख्वाहिशें अपनी-अपनी है ! इस उपन्यास के प्रत्येक पृष्ठ में प्रेम, राजनीति और करियर का उत्कृष्ट दर्शन प्रदान होने के साथ अति महत्वाकांक्षा से सुलझी हुई जिंदगी को उलझन के जाल मे फंसा लेने का दर्शन मकड़ी द्वारा खुद से बुना हुआ जाल के दर्शन मे मिल जाता है।

एकदम साफ हो जाता है कि सहज – सरल जिंदगी मे मकड़ी समान जाल समाज की देन है। जिसमे जन्म से मृत्यु तक पुरूष हो या औरत फंसते चले जाते हैं। प्रेम के बीच मर्यादा और सामाजिक अंतर ने हमेशा खलनायक की भूमिका निभाई है , वह जाति – धर्म की बात हो अथवा गरीबी – अमीरी के स्टेटस की बात हो ! या कोई अन्य बात !

उपन्यास का मुख्य किरदार राघव गरीब घर का लड़का है। वह गरीब लड़का अपने बड़े भाई जैसे दोस्त अभिषेक का रिश्तेदार बनने से राजनीति के शिखर पर पहुंचने लगता है। अभिषेक उसके कॉलेज में सीनियर था। लेकिन उसकी सफलता के पीछे उसका त्याग – तपस्या और कोमल स्वभाव एक रहस्य होता है। तब – तक वह राजनीति के दांव – पेंच राजनीतिक बाबू जी से सीख जाता है , जो पार्टी के अध्यक्ष भी थे, एक तरह के सुपर पावर। साथ ही समय उसका बड़ा शिक्षक होता है।

उपन्यास मे प्रेम की खुश्बू व दर्द से एक वास्ता पाठक का हो जाता है। आखिर पाठक भी वह इंसान है जो समाज और परिवार के बीच प्रेम के लिए कभी न कभी मछली की तरह तड़पा होगा , बिन पानी की मछली जैसे !

ऐसे ही प्रेम को लेखिका ने दर्शाया है। कालेज लाइफ से सोशल लाइफ तक लेखिका ने प्रेम की लकीर खींची है। एक ऐसी लकीर जैसे बादलों की गड़गड़ाहट में बरसते पानी के साथ तेज कड़कती बिजली की लकीर खिंच जाती है और उसकी तेज़ खतरनाक आवाज़ से पल भर को जिंदगी भय से भर जाना व लगना कि अरे क्या होगा ? बड़ी तेज बिजली कड़की है। आसमान से धरती तक बिजली की जैसी पहुंच वैसे ही प्रेम की अभिव्यक्ति से आसमानी किताबी पृष्ठ से दुख – सुख और दर्द पृथ्वी समान हृदयतल को स्पर्श कर लेना , ऐसा ही रिश्ता कृष्णा और राघव के मध्य पिरोया गया जो कहीं ना कहीं जीवंत होगा, आज भी समाज में। ऐसा इसलिए कि हम सभी सामाजिक प्राणी हैं और अपनी-अपनी ख्वाहिशों से  जिंदगी जी रहे हैं।

भारत जैसे देश मे प्रेम की असफल कहानियों की लंबी इबारत है , असंख्य दास्तान हैं। जहाँ प्रेम के बिछड़ते हाथ सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। परंतु इस उपन्यास में अंततः प्रेम का ऐसा मिलन है जो पाठक को सोचने के लिए मजबूर कर देता है परंतु व्यक्तित्व राघव जैसा होना चाहिए।

देव इस उपन्यास का ऐसा किरदार जो आज के उन युवाओं की तरह है , जिन्हें एनकेन प्रकारेण आर्थिक सफलता अर्जित करनी है। इस किरदार से जिंदगी और रिश्तों मे विश्वास, छल और अपनत्व के महत्व का वास्तविक दर्शन मिलता है। यह किरदार वैवाहिक जीवन की सच्चाई को भी साफ बयां करता है , जिसे सार्वजनिक रूप से कोई भी पुरूष शीघ्रता से स्वीकार नहीं करता। अंततः अपनी ही गति को प्राप्त हुए देव से सफलता के लिए प्रतीक्षा का यथार्थ भी समझ आता है। देव और राघव में दांव – पेंच की घमासान होती है कि पढ़ना रोचक होगा पति और प्रेमी मे से किसकी विजय होती है? कि पति हार जाता है या प्रेमी जीत जाता है ! यहीं पर किताब में दिलचस्प नज़ारे हैं।

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यह सीख मिलती है कि जीवन मे डिग्री ही सफलता की सूचक नहीं अपितु लोक व्यवहार जीवन की सफलता का सर्वोत्तम मंत्र है। ऐसा ही लोक व्यवहार का दर्शन देव और राघव के व्यक्तित्व से मिलता है। जहाँ राघव की क्षणिक कठोरता भी हृदय को प्रिय लगने लगती है , कठोर निर्णय जायज़ लगने लगता है।

चार दीवारी के अंदर प्रेम और रिश्ते का फ़र्ज़ अदा करने वाली एक संवेदनशील औरत कृष्णा के किरदार से घर – घर की कहानी उजागर होती है। पति-पत्नी के रिश्ते की सच्चाई का अहसास होता है। औरत के वास्तविक जीवन की दशा और दिशा से परिचय प्राप्त होता है। एक औरत की बुलंद ख्वाहिशों के दफ्न होने की हकीकत से भरी उपन्यास है और जीवन में प्रेम के महत्व को दर्शाती है।

इस तरह से यह उपन्यास पठनीय है और रोचक है। जो पाठक को अंत तक बांधने मे सक्षम है और हृदय को प्रेम व सफलता के भाव से सिक्त कर देती है। कुलमिलाकर के मुहब्बत की किताब से मुहब्बत हो जाती है पर सवाल छोड़ जाती है कि काश समाज में बदलते पृष्ठ की तरह बदलती कहानी की तरह जिंदगी की पृष्ठभूमि में भी बदलाव स्वीकार होता हो तो अंततः सुखद जीवन की परिकल्पना साकार होती ? यह उपन्यास जिंदगी , प्रेम और राजनीति का संगम है।

लेखिका को अतुलनीय प्रयास के लिए बधाई। पुनः ऐसी ही कोई सर्वोत्तम कृति लाने के लिए एडवांस में शुभकामनायें।
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